SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ १७. भवणवासीसु आहारट्रिट्ठआइदारसत्तगं प. बं. २११. असुरकुमारा णं भंते ! आहारट्ठी ? उ. हंता गोयमा ! आहारट्ठी । एवं जहा णेरइयाणं तहा असुरकुमाराण वि भाणियव्व जावते तेसिं भुज्जो - भुज्जो परिणमति । तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए । सेणं जहणेण चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं साइरेगस्स समुप्पज्जइ । ओसण्णकारणं पडुच्च वण्णओ- हालिद्द - सुक्किलाई गंधओ-सुब्बिगंधाई, रसओ-अंबिल-महुराई फासओ-मउय-लहु - णिधुण्हाई । साइरेगस्स वाससहसस्स तेसिं पोराणे वण्णाइगुणे सोईदियत्ताए जाब फासिंदियत्ताए, इट्ठत्ताए, कंतत्ताए, पिवत्ताए, सुभत्ताए, मणुण्णत्ताए, मणामत्ताए, इच्छित्ताए अभिझियत्ताए, उढताए णो अहताए सुहत्ताए णो दुहत्ताए ते तैसि भुग्जो - भुज्जो परिणमति" सेसं जड़ा रइयाणं वाससहसस्स आहारट्ठे " एवं जाव थणियकुमाराणं । णवरं- आभोगणिव्वत्तिए' उक्कोसेणं दिवसपुहत्तस्स आहारट्ठे समुप्पजइ । - पण्ण. प. २८, उ. १, सु. १८०६ १८. एगिंदिएसु आहारट्ठआइदारसत्तगं प. १. दं. १२. पुढविकाइया णं भंते ! आहारट्ठी ? उ. हंता गोयमा ! आहारट्ठी । प. २. पुढविकाइया णं भंते! केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ? उ. गोयमा ! अणुसमय अविरहिए आहारट्ठे समुप्प। प. ३. पुढविकाइया णं भंते ! किमाहारमाहारेंति ? उ. गोयमा ! एवं जहा रइयाणं जाय । प. ताई भंते! कइ दिसिं आहारैति ? १. पण्ण. प. ३४, सु. २०३९ २. (क) जीवा. पडि. १, सु. १३ (१८) (ख) विया. स. १, उ. १, सु. ६ / २-५ ३. विया. स. १, उ. १, सु. ६/१,३ १७. भवनवासियों में आहारार्थी आदि सात द्वार प्र. दं. २ ११. भन्ते ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? उ. हां, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं। जैसे नारकों का वर्णन किया, वैसे ही असुरकुमारों के लिए उनके पुद्गलों का बार-बार परिणामन होता है पर्यन्त कहना चाहिए। उनमें जो आभोगनिर्वर्तित आहार है। द्रव्यानुयोग - (१) उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ-भक्त, उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष पश्चात् उत्पन्न होती है। बहुलता की अपेक्षा वर्ण से पीत और श्वेत, ४. क. ख. ग. गन्ध से सुरभिगन्ध वाले, रस से- आम्ल और मधुर, स्पर्श से गृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण पुद्गलों का आहार करते हैं। (आहार किये हुए पूर्व पुद्गलों के) उन पुराने वर्णादि गुण श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पन्द्रिय के रूप में, इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ मनाम, इच्छित और अभिलषित रूप में, उच्च रूप में, हीन रूप में नहीं, सुख रूप में, दुःख रूप में नहीं, उन सबका बार-बार परिणमन करते हैं। शेष सब वर्णन नारकों के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष- इनका आभोगनिर्वर्तित दिवस- पृथक्त्व से होता है। १८. एकेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वारप्र. १. १२. भन्ते क्या पृथ्वीकायिक जीव आहाराव होते हैं ? उ. हां, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं। प्र. २. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? प्र. ३. भन्ते करते है ? उ. गौतम ! उन्हें प्रति समय बिना विरह के आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का आहार उ. गौतम ! इस विषय का कथन नैरयिकों के कथन के समान जानना चाहिए यावत् आहार उत्कृष्ट प्र. भन्ते ! पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते हैं ? जीवा. पडि. १, सु. १३ (१८) पण्ण. प. ३४, सु. २०३९ विया. स. १, उ. १, सु. ६/४
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy