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________________ आहार अध्ययन रसओ-तित्तरस कडुयाई फासओ कक्खड-गरुय-सीय-लुक्खाई तेसिं पोराणे वण्णगुणे, गंधगुणे, फासगुणे, विप्परिणामइत्ता, परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता, परिविद्धंसइत्ता, अण्णे अपुब्वे वण्णगुणे, गंधगुणे, फासगुणे, उप्पाएता, आयसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारैति। प. (४) णेरइया णं भंते ! सव्वओ आहारेंति, सव्वओ परिणामंति, सव्वओ ऊससंति, सव्वओ णीससंति, अभिक्खणं आहारेंति, अभिक्खणं परिणामंति, अभिक्खणं ऊससंति, अभिक्खणं णीससंति, आहच्च आहारेंति,आहच्च परिणामेंति, आहच्च ऊससंति, आहच्च णीससंति? उ. हंता गोयमा ! णेरइया सव्वओ आहारेंति जाव आहच्च णीससंति। प. (५)णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति, - ३६५ ) रस से तिक्त (तीखे) और कटुक (कडुए) रस वाले, स्पर्श से कर्कश, गुरु, शीत और रूक्ष स्पर्श वाले हैं, उनके पुराने (पहले के) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण का विपरिणमन, परिपीडन, परिशाटन और परिविध्वंस करके अन्य (दूसरे) अपूर्व (नए) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण को उत्पन्न करके अपने शरीर क्षेत्र में अवगाहन किए हुए पुद्गलों का पूर्णरूपेण आहार करते हैं। प्र. (४) भन्ते ! क्या नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं ? पूर्णरूप से परिणत करते हैं ? सर्वतः उच्छ्वास तथा सर्वतः निःश्वास लेते हैं ? बार-बार आहार करते हैं ? बार-बार परिणत करते हैं ? बार-बार उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? अथवा कभी-कभी आहार करते हैं? कभी-कभी परिणत करते हैं ? कभी-कभी उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? उ. हां, गौतम ! नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं। प्र. (५) भन्ते ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों का आगामी काल में कितने भाग का आहार करते हैं कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? उ. गौतम ! वे असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। प्र. (६) भन्ते ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सबका आहार कर लेते हैं या सबका नहीं करते हैं ? उ. गौतम ! शेष बचाए बिना उन सबका आहार कर लेते हैं। प्र. (७) भन्ते ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे उन पुद्गलों को बार-बार किस रूप में परिणत करते हैं ? उ. गौतम ! वे उन पुद्गलों को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में, अनिष्ट रूप से, अकान्त रूप से, अप्रिय रूप से, अशुभ रूप से, अमनोज्ञ रूप से, अमनाम रूप से, अनिच्छित रूप से, अनभिलषित रूप से, हीन रूप से, ऊँचे रूप से नहीं, दुःख रूप से, सुख रूप से नहीं, उन सबका बार-बार परिणमन करते हैं। तेणं तेसिं पोग्गलाणं सेयालंसि कइभागं आहारेंति, कइभागं आसाएंति? उ. गोयमा ! असंखेज्जइभागं आहारेंति, अणंतभागं ___ आसाएंति। प. (६)णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति, ते किं सव्वे आहारेंति,णो सव्वे आहारेंति? उ. गोयमा ! ते सब्वे अपरिसेसिए आहारेंति। प. (७)णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति, तेणं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति? उ. गोयमा ! सोइंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अणिट्ठत्ताए, अकंतत्ताए, अप्पियत्ताए, असुभत्ताए, अमणुण्णत्ताए, अमणामत्ताए, अणिच्छियत्ताए, अभिज्झियत्ताए, अहत्ताए, णो उड्ढत्ताए, दुक्खत्ताए, णो सुहत्ताए ते तेसिं भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। -पण्ण. प. २८, उ.१, सु. १७९५-१८०५ १. पण्ण.प.३४,सु.२०३९ प्र. नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी? उ. जहा पण्णवण्णाए पढमए आहार उद्देसए तहाभाणियब्व। गाहा-ठिइ उस्सासाहारे किं वा, आहारेंति सब्बओ वा वि। कइभागं सवाणिव कीसं व भुज्जो परिणमंति।। -विया.स.१, उ.१,सु. ६(१-३)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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