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________________ ३४६. २०. जे देवा सायं विसायं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पल रुइल तिमिच्छ दिसासोवल्थियं वद्धमाणयं पलंब पुष्पं सुपुष्ठ पुष्फष्पमं पुष्ककंतं पुष्फवण्णं पुष्फलेसं पुष्फज्झयं पुप्फसिंगं पुप्फसिट्टं पुप्फकूडं पुप्फुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण वीसं सागरोबमाई टिई पण्णत्ता। - सम. सम. २०, सु. १४ २१. जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामतं मल्लं किट्ठे चावण्णत अरण्णवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवा उक्कोसेण एक्कवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । -सम. सम. २१, सु. ११ २२. जे देवा महियं, विसूहियं विमलं पभासं वणमालं अच्चुयवडिसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा, तेसि णं देवाण उक्कोसेण बावीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । -सम. सम. २२, सु. १४ ११८. लोगंतिय देवाणं ठिई १- २. सारस्सतमाइच्चा ३. वही ५. गद्दतोया य । ६. तुसिता ४. वरुणा य ८. अग्गिच्चा चेव बोधव्वा ॥ ७. अव्वाबाहा एएसि णं अट्ठण्हं लोगंतिय देवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं अट्ठ सागरोबमाई टिई पण्णत्ता' ठाण. अ. ८. सु. ६२५/३ ११९. सुरियामदेव तरस य सामाणिय देवाणं टिई प. सूरियाभस्स णं भते देवस्स केवइयं काल टिई पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । प. सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? उ. गोयमा चत्तारि पलिओ माई ठिई पण्णत्ता। - राय. सु. २०६ १२०. विजयदेवा तरस य सामाणिव देवाणं टिई प. विजयस्स णं भंते! देवरस केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! विजयस्स णं देवस्स एवं पतिओवमं टिई पण्णत्ता । प. विजयस्स णं भंते! देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइयं काल टिर्ड पण्णत्ता ? उ. गोयमा विजयस्स णं देवस्स सामाणियाण देवाण एवं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १४३ १२१. जंभम देवाणं ठिई प. जंभगाणं भंते! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ. गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता । - विया. स. १४, उ. ८, सु. २८ १. विया स. ६, उ. ५, सु. ४२ 1 द्रव्यानुयोग - (१) २०. सात, विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, रुचिर, तिगिच्छ, दिशासोवास्तिक, वर्द्धमानक, प्रलंब, पुष्य, सुपुष्य, पुष्पावर्त, पुष्पप्रभ, पुष्यकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्षध्वन, पुष्पभ्रंग, पुष्पसृष्ट, पुष्पकूट और पुष्पोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की कही गई है। २१. श्रीवत्स, श्रीदामगंड, माल्य, कृष्टि, चापोन्नत और आरण्यावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम की कही गई है। २२. महित विश्रुत, विमल, प्रभास, वनमाल और अच्युतावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की कही गई है। ११८. लोकान्तिक देवों की स्थिति १. सारस्वत, २. आदित्य, ५. गर्दतोय, ४. वरुण, ७. अव्याबाध, ८. अग्न्यर्च । अनुत्कृष्ट इन आठ लोकांतिक देवों की अजघन्य और प्रत्येक की आठ सागरोपम की कही गई है। ११९. सूर्याभ देव और उसके सामानिक देवों की स्थितिप्र. भन्ते ! सूर्याभदेव की स्थिति कितने काल की कही गई है ? ६. तुषित, उ. गौतम ! सूर्याभदेव की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है ? स्थिति प्र. भन्ते सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उ. गौतम ! उनकी स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। १२०. विजयदेव और उसके सामानिक देवों की स्थिति १२१. जृम्भक देवों की स्थिति प्र. भन्ते ! विजय देव की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उ. गौतम विजय देव की स्थिति एक पत्योपन की कही गई है? प्र. भन्ते विजय देव की सामानिक परिषद् के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उ. गौतम विजय देव के सामानिक देवों की स्थिति एक पत्योपम की कही गई है। प्र. भन्ते ! जृम्भक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उ. गौतम ! एक पल्योपम की कही गई है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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