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________________ .२६४ उ. गोयमा ! पढमा वि,अपढमा वि, दं.१-२४ .नेरइया जाव वेमाणिया, नो पढमा, अपढमा। सिद्धा पढमा, नो अपढमा। ३. भवसिद्धिय दारंप. भवसिद्धिए णं भंते ! जीवे भवसिद्धिय भावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे,अपढमे। दं.१-२४.एवं नेरइए जाव वेमाणिए। पुहत्तेण विएवं चेव। एवं अभवसिद्धिए वि। प. नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए णं भंते ! जीवे नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए भावेणं कि पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे नो,अपढमे। प. नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए णं भंते ! सिद्धे नो भवसिद्धिए नो अभवसिद्धिए भावेणं कि पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे नो,अपढमे। एवं पुहत्तेण वि जीवा य सिद्धाय। द्रव्यानुयोग-(१)) उ. गौतम ! वे प्रथम भी हैं और अप्रथम भी हैं। दं. १-२४. अनेक नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त प्रथम नहीं, अप्रथम हैं। (अनेक) सिद्ध अनाहारकभाव की अपेक्षा से प्रथम हैं,अप्रथम नहीं हैं। ३. भवसिद्धिक द्वारप्र. भन्ते ! (एक) भवसिद्धिक जीव भवसिद्धकभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! वह प्रथम नहीं, अप्रथम है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। इसी प्रकार बहुवचन की अपेक्षा से भी जानना चाहिए। इसी प्रकार एक अनेक अभवसिद्धिक जीवों की अपेक्षा से भी जानना चाहिए। प्र. भन्ते ! नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिक जीव नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिकभाव की अपेक्षा से प्रथम हैं या अप्रथम हैं ? उ. गौतम ! वह प्रथम हैं, अप्रथम नहीं हैं। प्र. भन्ते! नो भवसिद्धिक नो अपभवसिद्धिक सिद्ध नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिकभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है ? उ. गौतम ! वह प्रथम है, अप्रथम नहीं है। इसी प्रकार जीव और सिद्ध बहुवचन की अपेक्षा से भी समझन चाहिए। ४. संज्ञी द्वारप्र. भन्ते ! संज्ञी जीव, संज्ञीभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! वह प्रथम नहीं, अप्रथम है। द.१-११, २०-२४. इसी प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। इनके बहुवचन का कथन भी इसी प्रकार है। प्र. भन्ते ! असंज्ञी जीव, असंज्ञीभाव की अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। दं.१-२२. इसी प्रकार नैरयिक से वाणव्यन्तर पर्यन्त जानना चाहिए। बहुवचन का कथन भी इसी प्रकार है। प्र. भन्ते ! नो संज्ञी नो असंज्ञी जीव नो संज्ञी नो असंज्ञीभाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम है, अप्रथम नहीं है। मनुष्य और सिद्ध भी इसी प्रकार है। बहुवचन का कथन भी इसी प्रकार है। ५. लेश्या द्वारप्र. भन्ते ! सलेश्यी जीव सलेश्यभाव से प्रथम है या अप्रथम है? उ. गौतम ! प्रथम नहीं, अप्रथम है। ४. सण्णी दारंप. सण्णी णं भंते !जीवे सण्णिभावेणं किं पढमे, अपढमे ? उ. गोयमा ! नो पढमे, अपढमे, दं. १-११, २०-२४. एवं नेरइए जाव एगिंदिय . विगलिंदिय वज्जे वेमाणिए। पुहत्तेण वि एवं चेव। प. असण्णी जीवे णं भंते ! असण्णिभावेणं किं पढमे, अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे,अपढमे। दं.१-२२.एवं नेरइए जाव वाणमंतरे। पुहत्तेण विएवं चेव। प. नो सण्णी नो असण्णी णं भंते ! जीवे नो सण्णी नो असण्णीभावेणं कि पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! पढमे, नो अपढमे। मणुस्से सिद्ध वि एवं चेव। पुहत्तेण वि एवं चेव। ५. लेस्सा दारंप. सलेसे णं भंते ! जीवे सलेसी भावेणं किं पढमे,अपढमे? उ. गोयमा ! नो पढमे,अपढमे,
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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