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________________ प्रथमाप्रथम अध्ययन : आमुख जो भाव या अवस्था जीव को पहली बार प्राप्त हो उस अपेक्षा से उस जीव को प्रथम तथा पहले से ही प्राप्त अवस्था की अपेक्षा से वह अप्रथम कहा जाता है। जैसे जीव को जीव भाव पहले से ही प्राप्त है अतः वह जीवभाव की अपेक्षा से अप्रथम है किन्तु सिद्धभाव प्राप्त करने की अपेक्षा सिद्ध जीव प्रथम हैं क्योंकि उन्हें सिद्धभाव पहले से प्राप्त नहीं था। इस प्रकार प्रथमता एवं अप्रथमता की अपेक्षा से इस अध्ययन में १४ द्वारों से निरूपण हुआ है। वे १४ द्वार इस प्रकार हैं १.जीव २. आहार ३. भवसिद्धिक ४. संज्ञी ५. लेश्या ६. दृष्टि ७. संयत ८. कषाय ९: ज्ञान १०. योग ११. उपयोग १२. वेद १३. शरीर और १४. पर्याप्त। चौदह द्वारों में जीव के प्रथमाप्रथमत्व का जो निरूपण हुआ है वह सामान्य जीव की अपेक्षा से भी है, नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डकों की अपेक्षा से भी है तथा सिद्धों की अपेक्षा से भी है। यह वर्णन यह दृष्टि प्रदान करता है कि कौन कौनसी ऐसी अवस्थाएँ हैं जो जीवों में पहले से चली आ रही हैं तथा कौनसी ऐसी अवस्थाएँ हैं जो प्रथम बार प्राप्त होती हैं। कुछ ऐसी भी अवस्थाएँ होती है जो कदाचित् प्रथम बार प्राप्त होती हैं तो कदाचित् अप्रथम बार प्राप्त होती है। जैसे सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा कदाचित् प्रथम हैं और कदाचित् अप्रथम हैं। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अप्रथम ही होते हैं, प्रथम नहीं। इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से १४ द्वारों के अन्तर्गत प्रथमत्व एवं अप्रथमत्व का विवेचन हुआ है। २६२
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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