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________________ ( २१४ ) एवं निरवसेसंजाव वेमाणियाणं। एवं गंधनिव्वत्ती दुविहा जाव वेमाणियाणं। रसनिव्वत्ती पंचविहा जाव वेमाणियाणं। फासनिव्वत्ती अट्ठविहा जाव वेमाणियाणं। -विया. स. १९, उ.८, सु. २१-२५ १११.विवक्खया करणस्स भेया चउवीसदंडएसुय परूवणं तिविहे करणे पण्णत्ते,तं जहा१. मण करणे, २. वइ करणे, ३. काय करणे। एवंणेरइयाणं विगलिंदियवज्जंजाव वेमाणियाणं। द्रव्यानुयोग-(१) इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त वर्णनिर्वृत्ति का कथन करना चाहिए। इसी प्रकार दो प्रकार की गन्ध निवृत्ति का वैमानिकों पर्यन्त वर्णन करना चाहिए। पांच प्रकार की रस निवृत्ति का वैमानिकों पर्यन्त वर्णन करना चाहिए। आठ प्रकार की स्पर्श निवृत्ति का वैमानिकों पर्यन्त वर्णन करना चाहिए। १११. विवक्षा से करण के भेद और चौवीस दंडकों में प्ररूपण करण तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. मनः करण, २. वचन करण, ३. काय करण। विकलेन्द्रियों (एक से चार इन्द्रियों वाले जीवों) को छोड़कर नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त तीनों करण होते हैं। (प्रकारान्तर से) करण तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. आरम्भ करण, २. संरंभ करण, ३. समारंभ करण। वैमानिकों पर्यन्त सभी दंडकों में ये करण पाये जाते हैं। तिविहे करणे पन्नत्ते,तं जहा१. आरंभकरणे, २.संरंभकरणे, ३.समारंभकरणे। एवं निरंतरं जाव वेमाणियाणं। -ठाणं.अ.३, उ.१,सु.१३२/४ प. कइविहे णं भंते ! करणे पन्नते? उ. गोयमा ! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तं जहा १. दव्वकरणे, २. खेत्तकरणे, ३. कालकरणे, ४. भवकरणे, ५. भावकरणे। प. नेरइयाणं भंते ! कइविहे करणे पन्नत्ते? उ. गोयमा ! पंचविहे करणे पन्नत्ते,तं जहा १. दव्वकरणे जाव ५-भावकरणे। एवं जाव वेमाणियाणं। -विया. स.१९, उ. ९, सु.१-३ प. कइविहे णं भंते ! पाणाइवायकरणे पण्णत्ते? उ. गोयमा ! पंचविहे पाणाइवायकरणे पण्णत्ते,तं जहा प्र. भंते ! करण कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! करण पांच प्रकार का कहा गया है। यथा १. द्रव्य करण, २. क्षेत्रकरण, ३. काल करण, ४. भव-करण, ५. भाव-करण। प्र. भंते ! नैरयिकों के कितने करण कहे गए हैं ? उ. गौतम ! पांच प्रकार के करण कहे गए हैं, यथा १. द्रव्यकरण यावत् ५. भावकरण। वैमानिकों पर्यन्त इसी प्रकार करण कहने चाहिए। १. एगिंदियपाणाइवायकरणे जाव ५. पंचेदियपाणाइवायकरणे। एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं। -विया.स.१९, उ.९,सु.९-१० प्र. भंते ! प्राणातिपात करण कितने प्रकार का कहा गया है? उ. गौतम ! प्राणातिपातकरण पांच प्रकार का कहा गया है, यथा१. एकेन्द्रिय प्राणातिपातकरण यावत् ५. पंञ्चेन्द्रिय प्राणातिपातकरण। इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त (प्राणातिपात करणों का) कथन करना चाहिए। ११२. उम्मायस्स भेया चउवीसदंडएसुय परूवणं प. कइविहे णं भंते ! उम्मादे पण्णत्ते? उ. गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तं जहा १. जक्खाएसे य, २. मोहणिज्जस्स य कम्मस्स उदएणं। १. तत्थ णं जे से जक्खाए से णं सुहवेयणतराए चेव, सुहविमोयणतराए चेव। ११२. उन्माद के भेद और चौबीस दंडकों में प्ररूपण प्र. भंते ! उन्माद कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! उन्माद दो प्रकार का कहा गया है, यथा १. यक्षावेश से, २. मोहनीय कर्म के उदय से (होने वाला)। १. इनमें से जो यक्षावेशरूप उन्माद है, उसका सुखपूर्वक वेदन किया जा सकता है और सुखपूर्वक उससे छुटकारा पाया जा सकता है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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