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________________ जीव अध्ययन १०८. चडवीस दंडएस भवसिद्धियत्त परूयणं प. दं. १ भवसिद्धिए णं भंते! नेरइए ? नेरइए भवसिद्धिए ? उ. गोयमा ! भवसिद्धिए सिय नेरइए, सिय अनेरइए, नेरइए वियसिय भवसिद्धिए, सिय अभवसिद्धिए । दं. २-२४. एवं दंडओ गाव वेगाणियाणं । - विया. स. ६, उ. 90, सु. ९-१० १०९. उबही परिग्गह भैया चडवीसदंडएम व परूवणंप. कविहे णं भते ! उबही पन्नत्ते ? उ. गोयमा ! तिविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा१. कम्मोवही, २. सरीरोवही, ३. बाहिरभंडमत्तोवगरणोवही । प. नेरइया णं भंते! कहविहे उवही पत्रत्ते ? उ. गोयमा ! दुविहे उबही पन्नत्ते, तं जहा१. कम्मोवही य, २. सरीरोवही य । सेसाणं तिथिहा उवही एगिंदियवज्जाणं जाव वैमाणियाणं । एगिंदियाणं दुविहे, तं जहा१. कम्मोवही य प. कइविहे णं भंते ! उवही पन्नत्ते ? उ. गोयमा ! तिविहे उवही पन्नत्ते, तं जहा१. सचित्ते, २. अचित्ते, एवं नेरइयाण वि एवं निरवसेस जाव वैमाणियाणं । २. सरीरोवही य । ३. मीसए । प. कइविहे णं भंते परिग्गहे पन्नत्ते ? उ. गोयमा ! तिविहे परिग्गहे पन्नत्ते, तं जहा १. कम्मपरिग्गहे, २. सरीरपरिग्गहे, ३. बाहिरग- भंडमत्तोवगरणपरिग्गहे। १. ठाणं अ. ३. उ. १, सु. १४६ प. नेरइयाणं भंते! कइविहे परिग्गहे पण्णत्ते, उ. गोयमा ! एवं जहा उबहिणा दो दंडगा भणिया, तहा परिग्गहेण वि दो दंडगा भाणियव्या।" - विया. स. १८, उ. ७, सु. ३-११ ११०. वण्णाइनिव्वत्ति भेया चउवीसदंडएसु य परूवणंप. कडविहा णं भंते । यण्णनिव्यती पत्रता ? उ. गोयमा ! पंचविहा यण्णनिव्यत्ती पत्ता, तं जहा१. कालवण्णनिव्वत्ती जाव ५. सुक्किलवण्णनिव्वत्ती । १०८. चौबीसदंडकों में भवसिद्धिकत्व का प्ररूपण प्र. दं. १. भंते ! जो भवसिद्धिक होता है, वह नैरयिक होता है, या जो नैरविक होता है, वह भवसिद्धिक होता है? २१३ उ. गौतम ! भवसिद्धिक कदाचित् नैरधिक होता है और कदाचित् नैरयिक नहीं भी होता है। नैरयिक कदाचित् भवसिद्धिक होता है और कदाचित् भवसिद्धिक नहीं भी होता है। दं. २- २४. इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त सभी दण्डक (आलापक) कहने चाहिए। १०९. उपधि और परिग्रह के भेद तथा चौबीस दंडकों में प्ररूपण प्र. भंते! उपधि कितने प्रकार की कही गई हैं ? उ. गौतम ! उपधि तीन प्रकार की कही गई हैं, यथा २. शरीरोपधि १. कर्मोपधि, ३. बाह्यभाण्डमात्रोपकरणोपथि। प्र. दं. १. भंते ! नैरयिकों के कितने प्रकार की उपधि कही गई है? उ. गौतम ! उनके दो प्रकार की उपधि कही गई हैं, यथा१. कर्मोपधि, २. शरीरोपनि। एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर वैमानिकों पर्यन्त शेष सभी जीवों के तीन प्रकार की उपधि होती है। एकेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार की उपधि होती है, यथा१. कर्मोपधि, २. शरीरोपधि प्र. भंते! उपधि कितने प्रकार की कही गई है ? उ. गौतम ! उपधि तीन प्रकार की कही गई है, यथा १. सवित्त, २. अचित ३. मिश्र । इसी प्रकार नैरयिकों के भी तीन प्रकार की उपधि होती है। इसी प्रकार अवशिष्ट सभी जीवों के वैमानिकों पर्यन्त तीनों प्रकार की उपधि होती है। प्र. भंते ! परिग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? उ. गौतम ! परिग्रह तीन प्रकार का कहा गया है, यथा १. कर्म - परिग्रह, २. शरीर-परिग्रह, ३. बाह्यभाण्ड मात्रोपकरण परिग्रह । प्र. भंते! नैरयिकों के कितने प्रकार का परिग्रह कहा गया है ? उ. गौतम ! जिस प्रकार उपधि के विषय में दो दण्डक कहे हैं उसी प्रकार परिग्रह के विषय में भी दो दण्डक कहने चाहिए। . ११०. वर्णादि निर्वृति के भेद और चौवीस दंडकों में प्ररूपणप्र. भंते ! वर्णनिर्वृत्ति कितने प्रकार की कही गई है ? उ. गौतम ! वर्णनिर्वृत्ति पांच प्रकार की कही गई है, यथा१. कृष्णवर्णनिर्वृति यावत् ५. शुक्लवर्णनिवृत्ति ।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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