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________________ जीव अध्ययन - २०१) उ. गोयमा ! नेरइया णं पोग्गलाहारा, पोग्गलपरिणामा, पोग्गलजोणीया, पोग्गलट्ठिईया, कम्मोवगा। उ. गौतम ! नैरयिक जीव पुद्गलों का आहार करते हैं, पुद्गल रूप में परिणमाते हैं। उनकी योनि (शीतादि स्पर्शमय) पुद्गल रूप है। उनकी स्थिति पुद्गल रूप है वे (ज्ञानावरणीयादि) कर्मरूपी पुद्गलों से युक्त हैं। उनके नारकत्व आदि की प्राप्ति पौद्गलिक कर्म निमित्तक है, उनकी स्थिति के कारण कर्मपुद्गल हैं। कर्म पुद्गलों के कारण ही वे विपर्यास (अन्य पर्याय) को प्राप्त होते हैं। दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। कम्मनियाणा कम्मट्टिईया, कम्मुणामेव विप्परियासमेंति। दं.२-२४. एवं जाव वेमाणिया। . -विया. स. १४, उ.६, सु. २-३ १००. चउवीस दंडएसु ठिइट्ठाणाइ दसदारेहिं कोहोवउत्ताइ भंग परूवणंगाहा-१. पुढविट्ठिइ २. ओगाहण ३. सरीर ४.संघयणमेव ५.संठाणे। ६. लेसा ७. दिट्ठी ८. णाणे ९-१0. जोगुवओगे य दस ठाणा॥ (१) ठिइट्ठाण दारंप. दं. १. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं केवइया ठिइठाणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! असंखेज्जा ठिइठाणा पण्णत्ता, तं जहा जहणिया ठिई, समयाहिया जहणिया ठिई, दुसमयाहिया जहणिया ठिई, तिसमयाहिया जहिणिया ठिई जाव असंखेज्जसमयाहिया जहणिया ठिई, तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिई। प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहन्नियाए ठिईए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता, माणोवउना, मायोवउत्ता, लोभोवउत्ता? उ. गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा कोहोवउत्ता। १. अहवा कोहोवउत्ता य माणोवउत्ते य। १००. चौबीस दंडकों में स्थिति स्थानादि दस द्वारों में क्रोधोपयुक्तादि भंगों का प्ररूपणगाथार्थ- १. स्थिति २. अवगाहना ३. शरीर ४. संहनन ५. संस्थान ६. लेश्या ७. दृष्टि ८. ज्ञान ९. योग १०. उपयोग इन दस स्थानों (द्वारों) द्वारा नरकादि पृथ्वीवर्ती जीवों का वर्णन करते हैं(१) स्थिति स्थान द्वारप्र. दं.१. भंते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकवास में रहने वाले नारक जीवों के कितने स्थिति स्थान कहे गये हैं ? उ. गौतम ! उनके असंख्यात स्थिति स्थान कहे गए हैं, यथा जघन्य स्थिति (दस हजार वर्ष की है) एक समय अधिक जघन्य स्थिति, दो समय अधिक जघन्य स्थिति। तीन समय अधिक जघन्य स्थिति यावत् असंख्यात समय अधिक जघन्य स्थिति तथा उसके योग्य उत्कृष्ट स्थिति ये सब मिलकर असंख्यात स्थिति स्थान हैं। प्र. भन्ते ! इस रलप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावासों में से एक-एक नारकावास में जघन्य स्थिति में वर्तमान नारक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं या लोभोपयुक्त हैं? उ. गौतम ! वे सभी क्रोधोपयुक्त होते हैं। १. अथवा बहुत से नारक क्रोधोपयुक्त होते हैं और एक नारक मानोपयुक्त होता है। २. अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त भी होते हैं और बहुत मानोपयुक्त भी होते हैं। ३. अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त होते हैं और एक मायोपयुक्त होता हैं। ४: अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त और बहुत से मायोपयुक्त होते हैं। ५. अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त होते हैं और एक लोभोपयुक्त होता है। ६. अथवा बहुत से क्रोधोपयुक्त और बहुत से लोभोपयुक्त होते हैं (ये द्विक संयोगी भंग है) २. अहवा कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता य। ३. अहवा कोहोवउत्ता य मायोवउत्ते य। ४. अहवा कोहोवउत्ता यमायोवउत्ता य। ५. अहवा कोहोवउत्ता य लोभोवउत्ते य। ६. अहवा कोहोवउत्ता य लोभोवउत्ता य।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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