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________________ २०० द्रव्यानुयोग-(१) २. इनमें से जो सरागसंयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. प्रमत्तसंयत २. अप्रमत्तसंयत। १. इनमें से जो अप्रमत्तसंयत हैं वे एक मात्र मायाप्रत्यया क्रिया करते हैं। २. इनमें से जो प्रमत्तसंयत हैं, वे दो क्रियाएं करते हैं, यथा २. तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा१. पमत्तसंजया य, २. अपमत्तसंजया य, १. तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसिं एगा मायावत्तिया किरिया कज्जति, २. तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसिं दो किरियाओ कज्जंति,तं जहा१. आरंभिया २. मायावत्तिया य। २. तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिं तिण्णि किरियाओ कज्जति,तं जहा१. आरंभिया,२.परिग्गहिया, ३.मायावत्तिया। ३. तत्थ णं जे ते असंजया तेसिं चत्तारि किरियाओ कज्जति,तं जहा१. आरंभिया, २. परिग्गहिया, ३. मायावत्तिया, ४. अपच्चक्खाणकिरिया। तत्थ णं जे ते मिच्छादिट्ठी जे य सम्मामिच्छादिट्ठी तेसिं णेयइयाओ पंचकिरियाओ कन्जंति, तंजहा१. आरंभिया जाव ५. मिच्छादसणवत्तिया। सेसं जहाणेरइयाणं।' दं.२२. वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं। १. आरम्भिकी २. मायाप्रत्यया। २. इनमें से जो संयतासंयत हैं, वे तीन क्रियाएं करते हैं, यथा१. आरम्भिकी, २. पारिग्राहिकी ३. मायाप्रत्यया। ३. इनमें से जो असंयत हैं वे चार क्रियाएं करते हैं, यथा दं.२३-२४. एवं जोइसिय वेमाणियाण वि। १. आरम्भिकी, २. पारिग्रहिकी, ३. मायाप्रत्यया, ४. अप्रत्याख्यानक्रिया। इनमें से जो मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं वे निश्चितरूप से पांचों क्रियाएं करते हैं, यथा१. आरम्भिकी यावत् ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। शेष कथन नैरयिकों के समान करना चाहिए। दं. २२ वाणव्यन्तरों (के आहारादि ७ द्वारों) का कथन नैरयिकों के समान करना चाहिए। दं. २३-२४ इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन करना चाहिए। विशेष-वेदना की अपेक्षा से वे देव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. मायीमिथ्यादृष्टि उपपन्नक, २. अमायी-सम्यग्दृष्टिउपपन्नक। १. उनमें से जो मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं। २. उनमें से जो अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं, वे महावेदना वाले हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि“सभी ज्योतिष्क और वैमानिक समान वेदना वाले नहीं हैं। शेष (आहार वर्ण, कर्म आदि सब पूर्ववत् कहना चाहिए।) णवरं-ते वेयणाए दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १. माइमिच्छादिट्ठी उववण्णगा य २. अमाइसम्मद्दिट्ठी उववण्णगा य। १. तत्थ णं जे ते माइमिच्छादिट्ठी उववण्णग्गा ते णं अप्पवेयणतरागा। २. तत्थ णं जे ते अमाइसम्मद्दिट्ठी उववण्णगा ते णं महावेयणतरागा। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'जोइसिय वेमाणिया णो सव्वे समवेयणा।' सेसं तहेवा३ -पण्ण.प.१७, उ.१,सु.११२३-११४४ ९९. चउनीस दंडएसुआहार-परिणामाइ परूवणंप. दं. १. नेरइया णं भंते ! किमाहारा, किंपरिणामा, किंजोणीया, किंठिईया पण्णता? ९९. चौबीस दंडकों में आहार-परिणामादि का प्ररूपणप्र. दं. १. भंते ! नैरयिक जीव किन द्रव्यों का आहार करते हैं ? किस तरह परिणमाते हैं ? उनकी योनि (उत्पत्तिस्थान) क्या है? उनकी स्थिति का क्या कारण है ? १. विया. स. १, उ. २ सु. १० २. विया. स. १, उ.२ सु.११ ३. विया. स. १९, उ. १०,सु.१
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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