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________________ १५० उ. गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अनंता । एवं पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि । एवं मणिगोदा विपज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि । एसट्टयाए सब्बे अनंता । एवं बायरनिगोदा वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि । पएसट्ट्याए सब्बे अनंता । एवं णिगोदजीवा नवविहा वि पएसट्ट्याए सव्वे अनंता । -जीवा. पडि. ५, सु. २२२-२२३ ६१. चउव्विहा तसा - प. से किं तं ओराला तसा ? उ. ओराला तसा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा -. २. तेइंदिया, ४. पंचेटिय १. बेदिया ३. चउरिंदिया, प से किं तं तसकाइया ? उ. तसकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १. पज्जत्तगा य, ६२. बेइंदियजीवपण्णवणा - जीवा. पडि. १ सु. २७ २. अपज्जत्तगा य। १. उत्त. अ. ३६, गा. १२६ २. जीवा. पडि १, सु. २८ - जीवा. पडि. ५, सु. २१० प से किं तं बेइदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? अणेगविहा उ. बेदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पण्णत्ता, तं जहा पुलाकिमिया कुच्छिकिमिया गंडूयलगा गोलोमा पेउरा सोमंगलगा वंसीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया, जलोउया संख संखणगा घुल्ला खुल्ला गुलया, खंधा वराडा सोत्तिया मोतिया कलुयावासा एगओवत्ता दुहओवत्ता गंदियावत्ता संयुकावत्ता, माईवाहा सिप्पिसपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा । सव्वे ते सम्मुच्छिमा, नपुंसगा । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा१. पज्जत्तगा य, २. अपज्जत्तगा य २ एएसि णं एवमाइयाणं बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्त जाइकुलको डिजोणीपमुहसयसहस्सा भवतीति मक्खायं । से बेइंदियसंसार समावण्णजीवपण्णवणा - पण्प. प. १, सु. ५६ द्रव्यानुयोग - (१) उ. गौतम संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त है। इसी प्रकार इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद भी कहने चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोद और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त मेद भी कहने चाहिए। ये सब प्रदेश की अपेक्षा अनन्त हैं। इसी प्रकार बादरनिगोद और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त भेद भी जानने चाहिए। ये सब प्रदेश की अपेक्षा अनंत है। इसी प्रकार प्रदेशों की अपेक्षा निगोदजीवों के सभी नौ भेद अनंत कहने चाहिए। ६१. चार प्रकार के त्रस प्र. उ. प्र. औदारिक त्रस कितने प्रकार के हैं ? उ. औदारिक त्रस चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा २. त्रीन्द्रिय, ४. पंचेन्द्रिय । १. द्वीन्द्रिय, ३. चतुरिन्द्रिय, सकाय कितने प्रकार के हैं ? सकाय दो प्रकार के कहे गए हैं, १. पर्याप्तक, यथा ६२. द्वीन्द्रिय जीवों की प्रज्ञापना प्र. द्वीन्द्रिय संसारसमापन्नक जीवों की प्रज्ञापना कितने प्रकार की है? " २. अपर्याप्तक । यथा उ. द्वीन्द्रिय संसारसमापनक जीवों की प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गई है, पुलकृमिक कुक्षिकृमिक, गण्डूयलग गोलोम, नूपुर, सौमंगलक वंशीमुख, सूचीमुख, गोजलोका, जलोका, जलयुक, शंख, शंखनक, पुल्ला खुल्ला, गुडन, स्कन्ध, वराटा, सौक्तिक, मौक्तिक, कलुकावास, एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावर्त्त, शम्बूकावर्त, मातृवाह, शुक्तिसम्पुट, चन्दनक, समुद्रलिक्षा अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, उन्हें डीन्द्रिय समझना चाहिए ये सभी सम्मूच्छिंग और नपुंसक है। ३. उत्त. अ. ३६, गा. १२७-१३० ये द्वीन्द्रिय संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. पर्याप्तक, २. अपर्याप्तक । इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक द्वीन्द्रियों के सात लाख जाति-कुलकोटियोनि प्रमुख होते हैं ऐसा कहा गया है। यह द्वीन्द्रिय संसारसमापन्नक जीवों की प्रज्ञापना हुई।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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