SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव अध्ययन - १०५ ) ६. जीवऽज्झयणं ६. जीव अध्ययन सूत्र सूत्र १. जीव द्वारा आत्मभाव से जीवभाव के उपदर्शन का प्ररूपणप्र. भंते ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम वाला जीव आत्मभाव से जीवभाव (चैतन्य) को प्रदर्शित करता है, क्या ऐसा कहा जा सकता है? उ. हां, गौतम ! उत्थान यावत् पराक्रम वाला आत्मभाव से जीव भाव को उपदर्शित करता है, ऐसा कहा जा सकता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "उत्थान यावत् पराक्रम वाला आत्मभाव से जीवभाव को उपदर्शित करता है, ऐसा कहा जा सकता है?" उ. गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, ' मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान के अनन्त पर्यायों के तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंग-ज्ञान के अनन्तपर्यायों के, १. जीवेणं आयभावेण जीवभाव उवदसण परूवणंप. जीवे णं भंते ! सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया? उ. हता, गोयमा ! जीवे णं सउट्ठाणे जाव परक्कमेणं __ आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीति वत्तव्वं सिया। प. से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ "सउट्ठाणे जाव परक्कमेणं आयभावेणं जीव भावं उवदंसेतीति वत्तव्यं सिया?" उ. गोयमा ! जीवेणं अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं सुयनाणपज्जवाणं, ओहिनाणपज्जवाणं, मणपज्जवनाणपज्जवाणं, केवलनाणपज्जवाणं, मइअण्णापज्जवाणं, सुयअण्णाणपज्जवाणं, विभंगणाणपज्जवाणं, चक्खुदंसणपज्जवाणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं, ओहिदसणपज्जवाणं, केवलदसणपज्जवाणं उवओगं गच्छइ, उवओगलक्खणे णं जीवे। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जीवे णं सउट्ठाणे जाव परक्कमे णं आयभावेणं जीवभावं उवदंसतीति वत्तव्वं सिया।" -विया. स. २, उ. १०, सु. ९ (१-२) २. जीवाणं तिकालवत्तित्त परूवणंप. एस णं भंते ! जीवे तीयमणंतं सासयं समयं “भुवि" इति वत्तव्वं सिया? उ. हता, गोयमा ! एस णं जीवे तीयमणंतं सासयं समयं “भुवि" इति वत्तव्वं सिया। प. एस णं भंते ! जीवे पडुप्पन्नं सासयं समयं "भवइ" इति वत्तव्वं सिया? उ. हता, गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं। एवं चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवल दर्शन के अनन्तपर्यायों के उपयोग को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"उत्थान यावत् पराक्रम वाला आत्मभाव से जीवभाव (चैतन्य) को उपदर्शित (प्रकट) करता है ऐसा कहा जा सकता है।" २. जीवों के त्रिकालवर्तित्त्व का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या वह जीव अतीत, अनन्त शाश्वत काल में था ऐसा कहा जा सकता है? उ. हां गौतम ! (द्रव्य की अपेक्षा) यह जीव अतीत, अनन्त शाश्वतकाल में था ऐसा कहा जा सकता है। प्र. भंते ! क्या यह जीव वर्तमान शाश्वतकाल में है ऐसा कहा जा सकता है? उ. हां गौतम ! यह जीव वर्तमान काल में है ऐसा पूर्ववत् कहा जा सकता है। प्र. भंते ! क्या यह जीव अनन्त शाश्वत भविष्यकाल में रहेगा, ऐसा कहा जा सकता है? उ. हा गौतम ! यह जीव अनन्त शाश्वत भविष्यकाल में रहेगा, ऐसा पूर्ववत् कहा जा सकता है। ३. जीवों की बोध संज्ञा के दो प्रकार हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान् (महावीर स्वामी) ने कहा है-यहां (इस) संसार में किन्हीं जीवों को यह संज्ञा (ज्ञान) नहीं होता है, यथा प. एस णं भंते ! जीवे अणागयमणंतं सासयं समयं "भविस्सइ" इति वत्तव्वं सिया? उ. हंता,गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्यं। -विया. स.१, उ.४,सु.११ ३. जीवाणं बोहसण्णया दुविहत्तं सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायंइहमेगेसिंणो सण्णा भवइ,तं जहा
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy