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________________ पर्याय अध्ययन । ७९ प. सेकेणठेणं भंते! एवं वुच्चइ "जहण्णगुणकालयाणं दुपदेसियाणं खंधाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता?" उ. गोयमा! जहण्णगुणकालए दुपदेसिए खंधे जहण्णगुणकालयस्स दुपदेसियस्स खंधस्स(१) दव्वठ्ठयाए तुल्ले, (२) पदेसठ्ठयाए तुल्ले, (३) ओगाहणट्ठयाए-१. सिय हीणे, २. सिय तुल्ले, ३.सिय अब्भहिए। जइ हीणे-पदेसहीणे, अह अब्भहिए-पदेसअब्भहिए। (४) ठिईए चउठाणवडिए, . (५) कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, (६-८) अवसेसवण्णाइउवरिल्लचउफासेहि य छट्ठाण वडिए। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ"जहण्णगुणकालयाणं दुपदेसियाणं खंधाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता।" एवं उक्कोसगुणकालए वि। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "जघन्यगुण काले द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?" उ. गौतम ! एक जघन्यगुणकाला द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले द्विप्रदेशी स्कन्ध से(१) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, (२) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है, (३) अवगाहना की अपेक्षा-१. कदाचित् हीन है, २. कदाचित् तुल्य है, ३. कदाचित् अधिक हैं। यदि हीन है तो-एक प्रदेश हीन है, यदि अधिक है तो-एक प्रदेश अधिक है। , (४) स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है, (५) कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, .. (६-८) शेष वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"जघन्यगुण काले द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं।" इसी प्रकार उत्कृष्ट गुण काले द्विप्रदेशी स्कन्धों के पर्याय कहने चाहिए। अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले द्विप्रदेशी स्कन्धों के पयार्य का कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष-स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। . इसी प्रकार दशप्रदेशी स्कन्धों पर्यन्त पर्याय कहने चाहिए। विशेष-अवगाहना में प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि उसी प्रकार करनी चाहिए। प्र. भंते !जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं? उ. गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय कहे अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, णवरं-सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। एवं जाव दसपदेसिए, णवर-पदेसपरिवुड्ढी ओगाहणाए तहेव। गये हैं।" प. जहण्णगुणकालयाणं भंते! संखेज्जपदेसियाणं खंधाणं केवइया पज्जवा पण्णता? उ. गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। प. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ "जहण्णगुणकालयाणं संखेज्जपदेसियाणं खंधाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता?" गोयमा! जहण्णगुणकालए संखेज्जपदेसिए खंधे जहण्णगुणकालयस्स संखेज्जपदेसियस्स खंधस्स(१) दव्वट्ठयाए तुल्ले, (२) पदेसठ्ठयाए दुट्ठाणवडिए, (३) ओगाहणट्ठयाए दुट्ठाणवडिए, (४) ठिईए चउट्ठाणवडिए, (५-८) कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, उ. गौतम ! एक जघन्यगुण काला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से(१) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, (२) प्रदेशों की अपेक्षा द्विस्थानपतित है, (३) अवगाहना की अपेक्षा द्विस्थानपतित है, (४) स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है, (५-८) कृष्पावर्ण के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है,
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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