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________________ ४०१ १९. ४८] - सल्लेखनावर्णनम् - 1583 ) आद्यन्तान्तप्रसरगहनं विश्वमेतत्समन्तात् सर्वैः क्षुण्णं सुनिपुणमिवाज्ञानजालाचितैस्तु । स्पृष्टाः कामं वयमपि तथा लोकलालाभिरेत द्रूपं बुद्ध्वा स्वसमयपरा धाम निष्कर्म यान्तु ॥ ४६ 1584) एकद्वित्रिचतुर्यु पञ्चकरणप्राप्ति शं दुर्लभा रूपायुःकुलजातिदेशनमुखस्तत्त्वावबोधस्ततः। भावानां चलनाच्च कापथसरित्पातश्च धीदौस्थ्यतो बोधेदुर्लभतामवेक्ष्य निपुणैस्तत्रेति यत्यं सदा ॥ ४७ 1585 ) अर्हद्भिर्दशधा प्रबुद्धजनतासिद्धयै स्वरूपस्थिति धर्मो येन हि देशकालनियताकारावरुद्धो ऽकथि । विज्ञानां हि विदे यदाप्तिविकला कान्याप्नुवन्तीह नो दुःखानीति विबुध्य धीरधिषणास्तस्मिन् यतन्तां श्रिये ॥ ४८ यह जगत् चारों तरफ से आदि, अंत और मध्य के प्रसार से गहन है। सर्व जीवों ने इसे अच्छी तरह से व्याप्त किया। अज्ञानजाल से सर्वतः आवृत हुए जीवों ने इस के सर्व प्रदेश व्याप्त किये हैं। हम भी लोकरूप लालाओं से अतिशय पूर्ण स्पृष्ट हुए हैं ( ? ) ऐसा जानकर अपनी आत्मा में तत्पर होते हुए कर्मरहित स्थान - मुक्ति- को प्राप्त होवो ॥ ४६॥ एक, दो, तीन और चार इन्द्रिय जीवों में से निकलकर पाँच इन्द्रियों की प्राप्ति अतिशय दुर्लभ है। यदि पाँचों इन्द्रियों की प्राप्ति हो भी गई तो रूप, आयुष्य, योग्य कुल, जाति और गुरूपदेश आदि के साथ आत्मस्वरूप का बोध होना अतिशय कठिन है। तत्पश्चात् परिणामों के स्थिर न रहने से तथा बुद्धि को दुःस्थिति से कुमार्गरूप नदी में पतन भी हो सकता है। इस प्रकार रत्नत्रय को दुर्लभता को देखकर निपुण मनुष्यों को उसको प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४७ ॥ आत्मस्वरूप में अवस्थित होने का नाम धर्म है । अरहंत भगवान ने प्रबुद्ध जनसमूह के लिये उसे उत्तम क्षमादि के भेद से दस प्रकार का कहा है। विशिष्ट ज्ञानियों के परिज्ञान के लिये वह देश, काल, नियतकाल और आकार से अवरुद्ध कहा गया है । उस धर्म की प्राप्ति से रहित प्राणी यहाँ कौन-से दुःखों को नहीं प्राप्त होते हैं ? (अर्थात् वे सभी प्रकार के दुःखों को प्राप्त होते हैं । यह जानकर धीरबुद्धि मनुष्यों को लक्ष्मी के लिये -- मुक्ति वैभव को प्राप्ति के लिये - उस धर्म के विषय में प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४८॥ ४७) 1 अतिशयेन. 2 मिथ्यामार्ग. 3 बोधे. 4 यत्न : करणीयः। ४८) 1D ज्ञानिनाम. 2 ज्ञानाय. 3 धर्म।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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