________________
३९९
-१९. ४२]
- सल्लेखनावर्णनम् - 1577 ) तापत्रयों घनघनामहमन्वभूवमेको यथा परवशः प्रहतप्रकाशः ।
रत्नत्रयीं यदि तथात्ममयीमधीयादेकत्वभावनपरः स तदावसेयः ॥ ४० 1578 ) यद्यभिन्नं किमपि किमपि द्रव्यजातिक्रियाचं
भावाभावप्रभवमहिमा द्योतते तत्तदन्यत् । इत्थं तावद् विगलितमहामोहमन्यत्वमेतु
यावच्छुद्धः स्वयमनघतां याति वाचामगम्याम् ।। ४१ 1579 ) वर्णोत्पत्तिप्रकाराः सुनिपुणधिषणैर्वणिता ये हि काये
तिष्ठन्त्येते विचार्या विमलपरिमलोद्गारिणश्चन्द्रमुख्याः । ये ते लोकप्रसिद्धास्तदुपकरणतां ये त एवाशुचित्वं यान्ति त्यक्तस्वभावास्तदशुचिमतां लब्धवर्णा विदन्तु ॥ ४२
जिस प्रकार मैं ने अकेले ही परवश-कर्म के वशीभूत - होकर विवेकरूप प्रकाश से रहित होते हुए अतिशय दृढ तापत्रयी का - सन्तापजनक जन्म, जरा व मरण अथवा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीन का अनुभव किया है उसी प्रकार यदि आत्मा के स्वभावभूत रत्नत्रयीका - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन का - अभ्यास किया होता तो उसी मुझ को निश्चित ही एकत्वभावना में तत्पर माना जाना चाहिये था॥४०॥
जो कुछ भी द्रव्य, जाति और क्रिया आदिक पदार्थ हैं व भाव और अभावके माहात्म्य से प्रकाशमान हो रहे हैं वे सब मुझ से अन्य हैं, इस प्रकार के विचार से महामोह अपनी आत्मामें से निकल जाता है और आत्मा उन पुद्गलादि पदाथों से भिन्नपनेको प्राप्त होता है । तदनंतर आत्मा शुद्ध होता हुआ वचन के अगोचर ऐसे कर्म मल से रहित आत्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥ ४१ ॥
अतिशय निपुण बुद्धि के धारक ऋषियों के द्वारा जो वर्ण-कांति-की उत्पत्ति के प्रकार निर्दिष्ट किये गये है वे विचारणीय हैं । जो वे निर्मल सुगंध के फैलानेवाले कपूर आदि लोकप्रसिद्ध पदार्थ हैं वे उस शरोरको उपकरणता को प्राप्त हो कर अपने स्वभाव को छोडते हुएअपवित्रता को प्राप्त होते हैं, इस प्रकार विद्वान् पुरुषों को अपवित्र शरोरादिकों को अपवित्रता को जानना चाहिये ॥ ४२ ॥
४०) 1 जन्मजरामरण मयीं मनोवाक्कायमयीं वा, D जन्मजरामृत्युरूपाम्. 2 अभ्यसेत् । ४१) । आगच्छतु. 2 आत्मानम्.. 3 निष्कर्मताम् । ४२) 1 कपूरप्रभृतयः. 2 कायस्य.. 3 मुनयः ।