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- सल्लेखनावर्णनम् -
1553 ) मार्गानोकहमुलपर्वतभुवो ऽसंवीतकायस्य' वाध्यासीनस्य विवासवस्तुविसरे पूर्वानुभूतस्मृतिम् । कुर्वाणस्य न वाञ्छतो न निखिलं तत्रोपकारावहं ख्यातः शीतपराजयः स्थितवतः स्वध्यानगर्भालये ॥ १७ 1554) दवानलकणाकुले वहति मारुते ऽक्कातर' - स्थिते रुवनान्तरे सुखमतीतमध्यायतः । खरीशुकरतात ः स्फुटिततप्तदेहस्य च
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निदाघ सहनं मतं प्रशमवारिधौ मज्जतः || १८
1555 ) मक्षिकामशक दंश पुत्तिकाकीट मत्कुणपिपीलिकादिभिः । तोदने' स्थिरतनोरनावृतेस्तत्परीषहजयो दयावतः ॥ १९
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पीडित करती है । फिर भी जो उस का प्रतिकार नहीं करता है तथा जिसका पक्षी के समान कोई नियत स्थान नहीं है, वह प्यास रूप अग्नि की ज्वाला को ध्यानरूप जल से शान्त करता है, उसका तृषापरीषहजय प्रसिद्ध है - वह उस तृषापरीषह को सहता है ॥ १६ ॥
जो मार्ग में वृक्ष के मूल में या पर्वत के भूभाग में वस्त्रादि के आवरण से रहित - नग्न - शरीर के साथ अवस्थित है, जो निवास से संबद्ध वस्तुओं के समूह के विषय में न पूर्व अनुभूत सुख का अनुभव करता है, ओर न इस विषय में उपकारक समस्त वस्तुओं में - रुई के या ऊनी वस्त्रादिकों में किसीकी भी इच्छा करता है, इस प्रकार जो आत्मध्यानरूप गर्भालय में - गृह के भीतरी भाग में स्थित हो रहा है ऐसे साधु के शोतबाधा का पराजय प्रसिद्ध है - ऐसा शरीर से भी निरपेक्ष साधु प्रसन्नतापूर्वक शीतपरीषह को सहता है ॥ १७ ॥
जो जितेन्द्रिय साध वनाग्नि के कणों से- स्फुलिंगों से - व्याप्त वायु (लू) के चलने पर भी पूर्वानुभूत सुख का स्मरण न करता हुआ मरुभूमि - रेतीली पृथिवी पर अथवा वन के मध्यभाग में दृढतापूर्वक अवस्थित रहता है; तथा जिस का संतप्त शरीर सूर्य के भयानक ताप से फूट रहा है; ऐसे उत्कृष्ट शांति के समुद्र में मग्न हुए साधु के उष्ण परीषहका सहन करना माना गया है ॥ १८ ॥
जिसका शरीर वस्त्रादि के आवरण से रहित होने से मक्खी, डांस, मच्छर, पुत्तिका ( पिस्सू ? ) कीट, खटमल और चींटी आदि प्राणियों के द्वारा काटे जाने पर भी जो अपने आसन से नहीं विचलित होता है । ऐसा दयालु मुनि दंश मशक परीषह का विजेता होता है ॥ १९ ॥
१७) 1 निरावरणकायस्य. 2 स्थितस्य 3 P° निवासवस्तु 4 PD समूहे. 5 P°नुभूते स्मृतिम् । १८ ) 1 यते : 2 सूर्यकिरण. 3 P° तापितस्फुटित । १९ ) 1 चर्मयूका. 2 पीडने ।