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- धर्मरत्नाकरः -
[१९. १३1549 ) आराध्य रत्नत्रयमित्थमर्थो समर्पितात्मा गणिने यथावत् ।
समाधिभावेन कृतान्त्यकार्यः कृती जगन्मान्यपदप्रभुः स्यात् ॥ १३ 1550 ) परीष हजयस्तुल्यो ऽनुप्रेक्षा उभयत्र च ।
संभावयन्तु सुधियो वक्ष्यमाणा यथायथम् ॥ १४ 1551 ) प्रास्वाहारपरस्य कालसमयाद्यावश्यकाप्यायिनो।
लाभालाभसतुच्छलाभजनितातङ्कस्य सद्ध्यानिनः । प्रायः स्वान्यकृतावमोदरनिराहाराभ्युदीर्णक्षुधः
क्षुद्वाधाविजयस्तदीयविहंतिप्रोत्सन्नचिन्ता यतेः ॥ १५ 1552 ) स्नानादीन् त्यजतो विरुद्धविषमाहारोष्मपित्तज्वरो
दन्यां कायहृषीकमायनिपुणां प्रत्यप्रतीकारिणः । आवासानियतस्य पक्षिण इवोदन्यासचिःशिखां
शान्ति प्रापयतः समाधिसलिलैः ख्यातं तृषामर्षणम् ॥१६
जो पुण्यशाली पुरुष समाधिमरण की इच्छा से अपने आप को विधिपूर्वक आचार्य के लिये समर्पित कर के इस प्रकार से रत्नत्रय की आराधना करता हुआ समाधिस्वरूप से अन्तिम कार्य को - सल्लेखना विधि को - पूरा करता है, वह लोकमान्य पद का स्वामी होता है ॥१३॥
__ मुनि को सल्लेखना हो अथवा गृहस्थ की सल्लेखना हो। दोनों में परीषहजय और अनुप्रेक्षा समान हैं । इसलिये जैसा आगे स्वरूप कहा जायेगा, तदनुसार विद्वज्जनों को उनका आदर करना चाहिये ॥ १४ ॥
जोसाधु प्रासुक आहार के ग्रहण में तत्पर हो कर काल-समयादि आवश्यकों में सन्तुष्ट रहता है, जिसे भोजन के लाभ, अलाभ अथवा अतिशय तुच्छ लाभ से रोग उत्पन्न हो गया है, फिर भी जो समीचीन ध्यान में लीन हो रहा है, तथा जिसे प्रायः स्वयं गृहीत अवमौदर्य या अनशनसे अथवा अन्यकृत अवमौदर्य या अनशन से - दाता के द्वारा अल्पमात्रामें आहार के देने से अथवा अन्तरायादि हो जानेपर सर्वथा आहार के न.मिलनेसे - भूख की पीडा उदित हुई है, वह उक्त भूख की वेदना के विनाश की चिन्ता से रहित साधु क्षुधापरीषह पर विजय प्राप्त करता है- उसे शांतिपूर्वक सहता है ॥ १५ ॥
जिसने स्नानादि का त्याग किया है ऐसे मुनि को प्रकृतिविरुद्ध और विषम आहार मिलने से उष्णता के साथ पित्तज्वर उत्पन्न हो कर प्यास लगती है, जो शरीर और इन्द्रियों को
१५) 1 तत्परस्य. 2 उत्पन्न. 3 यतेः. 4 पीडा. 5 निराकृता । १६) 1 तृषा. 2 सहनम् ।