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-१६. ९) - प्रोषधप्रतिमाप्रपञ्चनम् -
३२९ 1308 ) आरम्भजलपानाभ्यां मुक्तो ऽनाहार उच्यते ।
अनूपवासस्त्वारम्भादुपवासो ऽम्बुपानतः ॥६ 1309 ) महोपवासो द्वयजितः सदा जिनागमाकर्णनपाठचिन्तनः ।
अलंकृतः प्रासुकभूमिशय्यया जिनालये स्वालय एव वा रहः ।। ७ 1310 ) चतसृणां तु भुक्तीनां द्वयोर्वापि विवर्जनात् ।
द्विविधो ऽसौं पुनर्जेयःप्राचीनः सकलो ऽपि हि ॥ ८ 1311 ) पर्वसु स भवेन्नित्यः पञ्चम्यादिषु महाविधानेषु ।
नैमित्तिको व्रतवतामितरेषां स्याद्विधाने सः ॥ ९ अनवेक्षित-अप्रमार्जित उत्सर्ग - प्राणियों को बिना देखे और बिना झाडे भूमिपर मल-मूत्र छोडना।
स्मृत्यनुपस्थान – भूखसे पीडित होने से प्रोषधव्रत में मन नहीं लगना।
अनादर-भूख से पीडित होने से आवश्यकों में उत्साह न होना, प्रोषधव्रत में उत्साह न रहना) ॥ ५*६ ॥
इस प्रकार से यह उत्तम उपवास की विधि कही गई है।
आरम्भ और जलपान से मुक्त अनाहार कहा जाता है। आरम्भ से अनूपवास और जलपान से उपवास कहा जाता है ॥६॥
परन्तु महोपवास सदा उन दोनों से रहित होता है और वह जिनालय में अथवा अपने ही घर के भीतर एकान्त स्थान में प्रासुक भूमिशय्या के साथ जिनागम के सुनने, पढने और ध्यान से सुशोभित होता है। (अभिप्राय यह है कि चारों प्रकार के आहार का जो सर्वथा परित्याग किया जाता है वह महोपवास कहलाता है। इस महोपवास में सब प्रकार के आरम्भ को छोडकर जिनभवन अथवा अपने ही घर के एकान्त भाग में प्रासुक भूमिके ऊपर स्थित हो कर स्वाध्याय, स्तुतिपाठ एवं ध्यान आदि में समय बिताना चाहिये। इससे उसकी शोभा के साथ सफलता भी निर्मा
वह उपवास चारों भोजनों के परित्यागसे अथवा दो ही भोजनों के परित्याग से दो प्रकार का जानना चाहिये-प्राचीन और सकल ॥८॥
वह व्रती जनों के अष्टमी व चतुर्दशी पर्यों में नित्य तथा पंचमी आदि महाविधानों में व्रतविशेषों में-नैमित्तिक होता है। अन्य जनों के-अवतियों के विधान के समय होता है ॥९॥
६) 1 निर्जल: उपवासः. 2 जलपानात् उपवासः उच्यते । ७) 1 आरम्भजलपानाभ्यां वर्जितः महोस्वासो भवति. 2 एकान्ते । ८) 1 अशनं खाचं स्वादं पेयं चतुःप्रकारमाहारं भवति । तत्र अशनं भक्तादिकम्, साधं पक्वान्नकम् । द्वयोवर्जनाद् द्विविध: संज्ञोपवासो भवति. 2 उपवासः. 3 एकविधिः सर्वपूर्वाचार्योक्तः।।