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३१८ - धर्म रत्नाकरः
[१५. ६१८1262 ) दीप्तं च तप्तं च महत्तथोग्रं घोरं तपो घोरपराक्रमस्थाः ।
ब्रह्मापरं घोरगुणं चरन्तः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ।। ६१४८ 1263 ) आमर्शसर्वोषधयस्तथाशीविषा विषादृष्टिविषो विषाश्च ।।
सखेलविड्जल्लमलौषधीशाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ६१*९ 1264) क्षीरं सवन्तो ऽत्र घृतं स्रवन्तो मधु स्रवन्तो ऽप्यमृतं स्त्रवन्तः ।
अक्षीणसंवासमहानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ ६१*१० 1265 ) प्रत्येकोदीरितै रेभिर्यदि वा कुसुमाञ्जलीन् ।
मन्त्रैर्दशभिरित्थं तु सर्वपूज्यक्षमापणे ॥ ६२ 1266 ) मुद्रामण्डलमन्त्रजाप्यविधिभिस्तैरासनाद्यैः शुभैः
सिद्धान्ते ऽभिहितैश्च कारणवशाच्छीवीतरागो ऽप्ययम् । ध्येयो भुक्तिविमुक्तिदाननिपुणः स्वस्वकभावाश्रयो
विश्वाकारसमुच्छलद्घनतरज्योतिनिरुद्धाखिलः ॥ ६३ दीप्त तप, तप्त तप, महातप, उग्रतप, घोरतप, घोरपराक्रम, घोरबह्मचारी, और अघोरगुण ब्रह्म वारो इन तपोतिशय ऋद्धिविशेषों के धारक महर्षिजन हमारा कल्याण करें।।६१५८
आमौंषधि, सवौषधि, आशीविष दृष्टिविष, श्वेलौषधि, विप्रौषधि, जल्लौषधि और मलौषधि, इन ऋद्धियों के स्वामी वे महर्षि हमारा कल्याण करें ॥ ६१*९ ॥
क्षीरस्रवो, घृतस्रवो,मधुस्रवी, अमृतस्रवी अक्षीणसंवास और अक्षीण महानस ऋद्धियों के धारक महर्षि हमारा कल्याण करें ॥ ६१*१० ॥
सर्व पूज्य जिनेश्वरकी क्षमा माँगनेके विषय में स्वस्ति क्रिया का प्रत्येक श्लोक पढकर पुष्पांजलि अर्पण करनी चाहिये ॥ ६२ ॥
अथवा
सिद्धान्त में कही गई मुद्राविधि, मण्डलविधि, मंत्रविधि ओर जाप्यविधि इन विधि विशेषों तथा शुभ आसनादिक के द्वारा कारणवश वीतराग - अनुग्रह व निग्रहकी इच्छा से रहित- होनेपर भी अरहंतका ध्यान करना चाहिये । कारण कि वीतराग होनेपर भी वह ध्याता के अपने अपने भावों के अनुसार भोग और मोक्ष दोनों के देने में निपुण है । तथा समस्त ज्ञेय के आकाररूप परिणत ऐसी सघन ज्ञानरूपी ज्योति से सर्व को व्याप्त करने वाला
६१*९) 1 PD° दृष्टिविषा° । ६२) 1 D एकेन एकेन मन्त्रेण पुष्पाञ्जलिः । ६३) 1 D सर्वमुद्रादिकध्याने. 2 D स्वर्गमोक्ष ।