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३१४ - धर्मरत्नाकर:- .
[१५. ५०1243) यथायथं ते ऽपि चतुनिकायाः सक्षेत्रपाला अमराश्च देव्यः । स्वयं महाभक्तिभरावनम्रा यज्ञ सदा सनिहिता भवन्तु ॥ ५०
इति सकलदेवताह्वानम् । 1244) आत्मानं देवतगुणानेकीभावं नयन्निव ।
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण जपं कुर्याद्विचक्षणः ।। ५१ 1245) प्रणवो मायाबीजं परमेष्ठय भिधाक्षराणि चाद्यानि।
स्वाहान्तानि च मन्त्रो नाम्ना श्रीमन्त्रराजो ऽयम् ॥ ५२ 1246) एका द्वे तिस्रः संध्या वा जप्यमष्टशतं सदा ।
न न्यूनमधिकं कुर्वन् गुणाय परिकल्प्यते ॥ ५३ 1247 ) समधिगतदुरापज्योतिऋद्धि विवस्वान्
निरुपमगुणशीलादर्शकायान् जिनेन्द्रान् । अचलितकृतयत्नान् सूर्युपाध्यायसाधून
भवजलनिधिदूरश्रीकृते ऽध्येतु धीमान् ॥५४
क्षेत्रपालसहित चतुनिकाय देव और देवियाँ स्वयं महाभक्तिके भार से नम्र हो करयज्ञ में सदा समीप स्थित रहें ॥ ५० ॥
यह समस्त देवताओं के आव्हानन का मंत्र है ।
अपने को देवों के गुणों के साथ मानो एकरूप करने वाला विद्वान् पूजक आगे कहे जानेवाले मंत्र से जप करे ॥ ५१ ॥
'प्रणव (ॐ) मायाबीज (ही) तथा पंचपरमेष्ठी के नामों के प्रथमाक्षर अ, सि, आ, उ, सा और अन्त में स्वाहा, इस मंत्र को मंत्रराज कहा जाता है ॥ ५२ ॥
- इस मंत्रराज को एक संध्या में, दो संध्याओं में अथवा तीनों संध्याओं में सदा एक सौ आठ बार जपना चाहिये, इस से कम संख्या में नहीं । हाँ, उसका अधिक जप गुण के लिये माना जाता है ।। ५३ ॥
बुद्धिमान् भव्य जीव को प्राप्त हुई दुर्लभज्योति -अनन्त ज्ञान से समृद्ध ऐसे सिद्ध का, अनुपम गुण - अनन्त चतुष्टय आदि - रूप निर्मल पद के धारक अरहन्तों का तथा निश्चल मोक्ष पद के लिये प्रयत्नशील आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं का संसाररूप समुद्र से दूर रहनेवाली लक्ष्मी को - मुक्ति को - प्राप्त करने के लिये अध्ययन - ध्यान - करना चाहिये ॥ ५४॥
५०) 1 P°चतुर्णिकायाः. 2 PD° ह्वाननम् । ५१) 1 D जप्यम् । ५२) 1 D उन्हीं । ५४) 1 D आचार्य।