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________________ २९७ • १५.८] - सामायिकप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 1170) व्याख्यानपाठरचनानुपूर्व्या वाप्यनाहता । इयन्तमागमस्याशु यस्मादाप्तः स सिध्यति ॥ ४ 1171 ) किं वृथा लपितैविश्वं न कदाचिदनीदृशम् । यस्मादेभिरबोधोदं स एवाहन व्यवस्थितः ॥ ५ 1172) अदृष्टावपि भूतानां यथास्तित्वमनाहतम् । तथाप्तस्य न्यवेदीदं पूर्वमेव सविस्तरम् ॥ ६ 1173 ) ययाभिचारादिषु देवतानामदृश्यरूपाधिपतित्वमाजाम् । फलान्यभिध्यानबलात्सभीषुस्तथाहतो ऽपीति किमत्र चित्रम् ॥ ७. 1174) अदृष्टे ऽपि सूरावभिध्यानयोगात्तदाकारसंप्रार्चनं संवितन्वन् । धनुर्वेदविद्यामवापदुरापां किरातो जगत्यामितीदं प्रसिद्धम् ॥ ८ . आगम के अभिप्राय के स्पष्टीकरण को व्याख्यान कहते हैं । पाठरचना - आगम के सूत्रादिको निर्मिति को पाठरचना कहते है । आनुपूर्वी - पूर्व विषय के अनुसार विवेचन को आनुपूर्वी कहते हैं। आगमको ये सब बातें अबाधित हैं इसलिये इन से आप्त की- सर्वज्ञ जिनदेवकी - सिद्धि होती है (?) ॥ ४ ॥ व्यर्थ बकवाद करने से क्या लाभ है ? विश्व कभी भी अन्य प्रकार का नहीं हैकिन्तु इसी प्रकार का ही है - यह उक्त कुवादियों को जिस के आश्रय से ज्ञात हुआ है वही अरिहन्त व्यवस्थित है - यही अरिहन्त सिद्ध होता है ॥ ५ ॥ जिस प्रकार प्राणी (आत्मा) यद्यपि आँखों से नहीं देखे जाते हैं, तथापि उनका अस्तित्व निर्बाध सिद्ध है उसी प्रकार आप्तका- सर्वज्ञ का - भी अस्तित्व निर्बाध सिद्ध है, इस विषय में हम पहले ही विस्तारपूर्वक कह चुके हैं ॥ ६ ॥ जिस प्रकार देवताओं के अतिशय अदृश्य स्वरूप से संयुक्त होने पर भी अभिचारादि कर्मों में – हिंसाजनक जारण मारणादि क्रियाओं में - उन के चिन्तन के बल से फलों की इच्छा की जाती है उसी प्रकार अरिहन्त के अदृश्य होने पर भी उसके चिन्तनादि से फल की प्राप्ति होती है, इस में आश्चर्य भी क्या है ? ॥ ७ ॥ साक्षात् सूरि - द्रोणाचार्य – के दृष्टिगोचर न होने पर भी संकल्प के वश उनकी आकृति (मूर्ति) की पूजा करने वाले भील - एकलव्य – ने दुर्लभ धनुर्वेद विद्या को प्राप्त किया, यह लोक में प्रसिद्ध है ॥ ८॥ । ., ४) 1 P°रचनापूर्ध्यावासा. 2 P° स्यागुर्यस्मात् । ५) 1 ज्ञातम् । ६) 1 जीवानामदर्शनेपि, 2 अनिराकरणीयम्. 3 प्रोक्तम्. 4 अस्तित्वम् । ८) 1 आचार्य. 2 आराधनात्. 3 तस्य आचार्यस्य ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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