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________________ २८२ - धर्मरत्नाकरः - [ १३. ३६1107) शास्त्रप्रणीतो नियमो व्रतं स्यात् स्यूलं त्वणु स्याल्लघु वा व्रतानाम् । अपेक्षयैतन्महतां सदातो महाव्रतत्वं परतो ऽवसेयम् ॥ ३६ 1108) व्रतयन्ति नियमयन्ति हि मुक्तिश्रीपरिणयेन कुर्वाणम् । __ क्रमतो व्रतानि यत्तत्सर्वज्ञैः कीर्तितानीति ॥ ३७ 1109 ) योगैश्चैव कृतादिभिस्तदनु च क्रोधाष्टकेनाहतं तद्वच्चैव गुणवतैर्वतमिदं पञ्चप्रमाणं ध्रुवम् । ध्यानद्वादशकेन च प्रतिमयोर्युग्माद्यथा स्वं भवेदादो शून्यमथो द्वयं च नवकं पञ्चद्वयं शीलिनाम् ॥ ३८ मारा जाता है तो कभी वह स्वयं भी दूसरोंका घात कर बैठता है, कभी वह शोकाकुल होता है, कभी भागता है, स्तुति करता है, नमस्कार करता है, पोडित किया जाता है तथा कभी खेदको प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रत्येक दिशा में जिस लोभ रूप समुद्र में समस्त विश्व डुबा हुआ है उस प्रबल लोभ को जिन महापुरुषोंने सन्तोषरूप सूर्य की किरणों के द्वारा सुखा डाला हैं, वे महानुभाव समृद्धि को प्राप्त होवें ॥ ३५ ॥ शास्त्र में उपदिष्ट नियम को-हिंसादि पाँच पापों के परित्याग को-व्रत कहते हैं। वह स्थल और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार का है । स्थूलव्रत को अणुव्रत अथवा लघुव्रत कहते हैं। उसे जो अणुव्रत कहा जाता है वह महाव्रतोंकी अपेक्षा कहा जाता है । इन अणुव्रत से जो भिन्न व्रत हैं उन्हें उनकी अपेक्षा महाव्रत समझना चाहिये ॥ ३६ ॥ चूंकि ये मुक्तिरूप लक्ष्मी के साथ विवाह से प्रतिक को क्रम से जो व्रतयन्ति अर्थात् नियमित करते हैं, उसके साथ विवाह से बद्ध करते हैं, अत: सर्वज्ञों ने उन्हें 'व्रत' इस सार्थक नाम से निर्दिष्ट किया है ॥३७॥ - इस पाँच भेदस्वरूप व्रत को उत्तरोत्तर क्रम से तीन योग, कृत, कारित व अनुमोदना ये तीन; तत्पश्चात् क्रोधादि आठ कषाय-अनन्तानुबन्धी चतुष्क व अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क इसी प्रकार तीन गुणवत; बारह ध्यान (तप? ) और दो प्रतिमा-दर्शन व व्रत प्रतिमा; इन सब से गुणित करने पर प्रारम्भमें शून्य, फिर दो, नौ, पाँच और दो; इतने अंक (५ x ३ ४ ३४८ x ३ ४ १२ x २ = २५९२०) प्राप्त होते हैं । इतने शीलधारियोंके उस व्रत के भेद समझना चाहिये ॥ ३८ ॥ ३६) 1D कथितः.2D भवेन. 3 अतः कारणात अणव्रतानि महाव्रतस्थानानि अवसेयम.4 परतो व्रतापेक्षया महताम्. 5 निश्चेयम, D ज्ञातव्यम् । ३७) 1 D महाव्रतं अणुव्रतं. 2 P° नियमन्ति, संयोजयन्ति. 3 पुरुषम । ३८) 1 D पञ्चाणुव्रतानि ५ योग: ३ गुणितानि १५ कृतकारितानुमतः ४५ क्रोधाष्टकेन ३६० गणवतैः १०८० ध्यान १२ गणितानि १२९६० दर्शनवतप्रतिमायुग्मेन२५९२० शीलानि. 2 सप्तशीलयुक्तानाम् .
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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