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________________ -१३. २८] – अस्तेयब्रह्मपरिग्रहविरतिव्रतविचारः २७९ 1097 ) तदुक्तम् अनिवृत्तेर्जगत्सर्व मुखादवशिनष्टि' यत् । तत्तस्याशक्तितो भोक्तुं वितनो न सोमवत् ॥ २७*३ 1098 ) स्याहेहो न सनातनः सहभवो यस्मिन्नहो तत्र कै वास्था द्रब्यकलत्रपुत्रनिचये ज्ञात्वेति लोभाग्रहे। व्यावाः स्वमनोरथा हि विफलास्तस्मिन् धियं बध्नतां' न ह्यस्थानमहोद्यमेन मतयः कामप्रदाः कहिंचित् ॥ २८ सो ही कहा है निवृत्ति से रहित-तृष्णातुर-प्राणी के मुख से जो सब लोक शेष बचा हुआ है, वह उसकी उसे भोगने की शक्ति न होने से ही बचा हुआ है, न परित्याग के वश हो कर। जैसे शरीर से रहित राहु के मुख से सूर्य-चन्द्र ।(अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार राहु, सूर्य व चन्द्र को पूर्णतया ही ग्रसित करना चाहता है, फिर भी उनका जो कुछ भाग शेष बचा रहता है वह उसकी अशक्ति के कारण ही बचा रहता है, न की उनकी ओर से विरक्ति के कारण। ठीक इसी प्रकार से प्राणी की विषयतृष्णा अपरिमित है। वह समस्त लोक को ही अपने अधीन करना चाहता है। फिर भी जो कुछ विषयसामग्री उससे बची हुई है वह उसे इच्छानुसार प्राप्त न कर सकने से तथा तद्विषयक भोगने को शक्ति के न होने से ही बची हुई है, न कि उसकी विरक्ति के कारण) ॥२७*३॥ जिस परिग्रह में साथ में उत्पन्न होनेवाला शरीर ही जब स्थायी नहीं है तब उस परिग्रह में से धन, स्त्री और पुत्रसमूह में भला वह स्थायित्व कहाँ से हो सकता है ? (अर्थात् जब सदा साथ में रहनेवाला शरीर ही स्थिर नहीं है तब आत्मा से सर्वथा भिन्न दिखनेवाले धन (अचित्त परिग्रह) और स्त्रीपुत्रादि (सचित्त परिग्रह) तो स्थिर हो ही नहीं सकते हैं । उनका वियोग अनिवार्य है), ऐसा जानकर उक्त परिग्रह के विषय में बुद्धि को संबद्ध करनेवाले-उसमें आसक्ति रखनेवाले-प्राणियों के निरर्थक मनोरथों-निराधार कल्पनाओं-को तद्विषयक लोभ के दुराग्रह से पृथक करना चाहिये। कारण यह कि अयोग्य स्थान में किये जानेवाले महान् परिश्रम से बुद्धि कभी भी सफल नहीं होती है । (अभिप्राय यह है कि, धनधान्यादि सब बाह्य पदार्थ जब स्थायी नहीं हैं तब उन के विषय में लुब्ध हो कर विवेकी जीवोंको उनकी प्राप्ति के लिये निरर्थक प्रयत्न नहीं करना चाहिये) ॥ २८॥ ____ २७*३) 1 D निर्गच्छति. 2 P° उद्व [व] रितम्, Dशेषा, यतो मुखे न माति राहुः सूर्यचन्द्रयोः, D तस्या.. 3 वितनोः. 4 PD राहोंः । २८) 1 अविनश्वरः, D न शाश्वत:. 2 देहो. 3 परिग्रहे. 4 स्थितिः.5 परिग्रहे. 6 बुद्धिम्. 7 पुरुषाणाम्. 8 अनवसरे. 9 बुद्धयः. 10 कदाचन ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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