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________________ २५० - धर्मरत्नाकरः [१२. ३३अस्येदं तात्पर्यम्-असत्यमपि किंचित्सत्यमेव यथाअन्धांसि रन्धयति वयति वासांसीति । सत्यमप्यसत्यं किंचिद्यथा-अर्धमासतमे दिने तवेदं देयमित्यास्थाय मासतमे संवत्सरतमे वा दिने ददातीति । सत्यसत्यं किचिद्यथा-यद्वस्तु देशकालाकारप्रमाणं प्रतिपन्नं तत्र तत्रैवाविसंवाद इति । असत्यासत्यं किंचिद्यथा यत्स्वस्यासत् संगिरते कल्ये दास्यामीति । 1014) तुरीयं वर्जयेन्नित्यं लोकयात्रात्रये स्थितः । गृहाश्रमी प्रवर्तेत गुणदोषौ विचारयन् ॥ ३३ 1015) वाणीमसभ्यां परदोषगर्भामजायमानातिशयप्रगल्भाम् । भाषेत नो किं त्वभिजातरम्यां हितां मितां सद्व्यवहारगम्याम् ॥३४ इस का तात्पर्य इस प्रकार है १) असत्य सत्य-कोई वचन वस्तुतः असत्य हो कर भी व्यवहार में सत्य माना जाता है। जैसे -भात को राँधता है अथवा वस्त्रों को बुनता है। यहाँ भात के योग्य चावलों को भात शब्द से और वस्त्र के योग्य तन्तुओं को वस्त्र शब्द से निर्दिष्ट किया गया है। अतएव उक्त दोनों वाक्यों के असत्य होने पर भी चूंकि लोकव्यवहार में ऐसे वाक्योंको असत्य नहीं माना जाता है, इसीलिये ऐसे वचन सत्याश्रित असत्य माना जाता है। २) सत्यासत्य-कोई वचन सत्य हो कर भी असत्य हुआ करता है। जैसे 'मैं पन्द्रहवें दिन तुम्हें इसे दे दूंगा? इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके भी परिस्थितिवश पन्द्रहवें दिन न दे कर महीने में व वर्ष में भी उसे देना । यहाँ चूंकि दे दिया गया, इसीलिये तो सत्य, परन्तु प्रतिज्ञात समय पर नहीं दे सका, इसिलिये उक्त वाक्य कुछ अंश में असत्य भी है। ३) जो वस्तु जिस देश, काल, आकार और प्रमाण में है,उसे उसो स्वरूप में कहना; इस का नाम सत्यसत्य है। ४) जो वस्तु अपने पास नहीं है व जिस का देना असम्भव है उस के विषय में 'मैं उसे कल दे दूंगा 'ऐसी प्रतिज्ञा करना, यह असत्यासत्य वचन कहलाता है। तीन प्रकार के लोकव्यवहार में स्थित गृहस्थ को उपर्युक्त चार प्रकार के वचन मैं चौथे असत्यासत्य, वचन का सर्वथा त्याग करना चाहिये । शेष तीन प्रकारके वचन को(असत्यसत्य, सत्यासत्य और सत्यसत्य को) वह व्यवहार के अविरुद्ध होने से बोल सकता है । उसे गुण और दोष का विचार करते हुए ही प्रवृत्ति करनी चाहिये ॥ ३३ ॥ गृहस्थ को असभ्य, दूसरों के दोषों से परिपूर्ण-निन्दा परक, अतिशय से -किसी प्रका गद्यम. 1 भोजनानि, D भोजनं करोति वस्त्रं वुणति. 2 चिन्ताकरम्, D षण्मासान् तव कस्मरं ददामि ददाति वर्षदिने. 3 समाधाय. 4 कथयति, D पुनः पुनः वदति. 5 कल्ये श्वो दिने प्रभाते अन्यदिने । ३३) 1असत्यासत्यम्. 2 D सत्यं सत्यत्रयी वचः । ३४) 1 अनारी [य].2 कुलस्य योग्याम्.3D गोचरां ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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