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- धर्म रत्नाकरः -
[ १२.३२
1004) प्रमादयोगादसदुक्तयो यांस्ता वीतरागैरनृतं प्रगीतम् । समासतस्तंच्च चतुर्विधं स्याद्विचार्य चैनं तिना महेयम् ॥ ३२ 1005) स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु |
तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तो ऽत्र ।। ३२१ 1006 ) असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्र कालभावस्तुं ।
उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः || ३२*२ 1007 ) वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् ।
अन तमिदं च ततीयं विज्ञेयं गौरिति यथाश्वः || ३२*३ 1008 ) गर्हितमवद्यसंयुत॑मप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥ ३२४
वाला हैं । किन्तु दूसरी ओर स्थापित अन्य समस्त क्रियाओं का तुच्छ फल खेती के फल के समान कालान्तर में प्राप्त होने वाला ॥ ३१ ॥
प्रमाद के वश हो कर जो असत्य वचन बोले जाते हैं उन्हें वीतराग भगवान् ने अनृत (असत्य) वचन कहा है वह संक्षेप से चार प्रकार का है । सत्यव्रती को विचार कर उसका परित्याग करना चाहिये ॥ ३२ ॥
आगे उक्त चार प्रकार के असत्य वचन का ही स्पष्टीकरण किया जाता है - जिस में स्वकीय क्षेत्र, काल और भाव से वस्तु के विद्यमान होने पर भी उस का निषेध किया जाता है। वह पहला असत्य वचन है । जैसे- यहाँ देवदत्त नहीं है || ३२१ ॥
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जिसमें परकीय क्षेत्र, काल और भाव से वस्तु स्वरूप के न होने पर भी उसके सद्भाव को प्रकट करना, यह दूसरा असत्य है । जैसे - यहाँ घट है ॥ ३२२ ॥ अस्तित्व को पररूप से कहा जाता है उसे तृतीय असत्य समझना चाहिये । जैसे- बैल को घोडा कहना ॥ ३२३ ॥
जिस में स्वरूप से विद्यमान वस्तु के
जिस वचन का स्वरूप गर्हित, अवद्य (पाप) संयुक्त, तथा अप्रिय होता है उसे चौथा असत्यवचन जानना चाहिये । वह सामान्य से तीन प्रकार का है || ३२४ ।। स्पष्ट किया जाता है -
आगे इसी
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३२) 1 द्वितीयत्रतं कथयति 2 उक्तयः 3 अनृतम् 4 PD चैनं व्रतिना प्रमादयोगम्. 5 त्याज्यम् । ३२*१) 1 विद्यमान वस्तु 2 यत्र निषिध्यते 3 स्वक्षेत्रकालभावः सत् - निषेधः प्रथमम् अनृतम् । ३२ * २ ) 1. अविद्यमान. 2 भाव आकृति 3 परक्षेत्रकालभावः असत्प्रकाशनं द्वितीयम् अनृतम् 4 क्षेत्रादिषु । ३२*३ ) 1
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Omitted 2 D यथा गौः अश्वः कथ्यते । ३२* ४ ) 1D अवद्ययुक्तं न च ।