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-१२. ३१]
- अहिंसासत्यव्रतविचारः - 999 ) धीवरस्तु किल वारचतुष्कं जालगाम्भसिकमप्रतिनिघ्नन् ।
मङगलं न कतमत्समवाएं यत्यतामिति महद्भिरहिंसा ॥२८ 1000) उक्तं च -
न गोप्रदानं न महीपदानं न चान्नदानं हि तथा प्रधानम् । ___ यथा वदन्तीह महाप्रधानं सर्वप्रदानेष्वभयप्रदानम्॥ २८*१ 1001 ) आद्यव्रतस्वरूपं समासतो ऽभाणि नो विशेषो ऽत्र ।
निघ्नानानिघ्नानानाश्रित्य सं पूर्वमेवोक्तः ।। २९ 1002 ) मन्त्रौषधातिथेयीकृते ऽपि हिंसेति दूरमुत्सृज्या ।
गरेकण्टकाहिं रिपुवत्प्रचेतसा सर्वदा त्रेधा ॥ ३० 1003 ) अहिंसाव्रतमेकत्र परत्रं सकलाः क्रियाः ।
चिन्तामणिफलं पूर्वे परत्र च कृषः फलम् ॥ ३१ फिर भला जो मनुष्य सदैव प्राणिहिंसा किया करता हैं, वह भला कैसे दुख से मुक्त हो सकता है ? ॥ २७ ॥
इस के विपरीत जिस धोवर ने जाल में आयी हुई मछली को चार बार छोडाव उसे नहीं मारा, वह भला कौन-से कल्याण को नहीं प्राप्त हुआ है ? अर्थात् वह अतिशय सुख को प्राप्त हुआ है । इसलिये महापुरुषोंको उस अहिंसा के विषय में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥ २८ ॥ कहा भी है -
सब दानों में जिस प्रकार अभयदान अतिशय प्रधान है उस प्रकार न तो गौ का दान प्रधान है, न भूमिका दान प्रधान है और न अन्न का भी दान प्रधान है, ऐसा यहाँ कहा जाता है ॥ २८*१॥
प्रथम अहिंसाव्रत का स्वरूप संक्षेपसे कहा जा चुका है । उसमें यहाँ कुछ विशेष नहीं है । हिंसा करने वाले और न करने वाले इन दोनों में जो विशेषता है उसे पूर्व में ही कहा जा चुका है ॥ २९ ॥
___ हिंसा को विष, कण्टक, सर्प ओर शत्रु के समान भयानक समझ कर निर्मलबुद्धि मनुष्य को उस हिंसा का मन्त्र, औषधि और अतिथि-सत्कार के लिये भी सदा मन, वचन व काय से दूरसे हो परित्याग करना चाहिये ॥ ३० ॥
एक ओर अहिंसा व्रत को ओर दूसरी ओर अन्य समस्त दानादि क्रियाओंको स्थापित करने पर पूर्व में स्थापित उस अहिंसा का फल चिन्तामणि के समान उसी समय प्राप्त होने rrrrrrrrrrrrrrrr
२८) 1 जलगतमानसिकमत्स्यम्. 2 अमारयन्. 3 कतरत.4 प्रात:. 5 यत्नं कुर्वताम, D यत्नः क्रियताम् । २९) 1 स विशेषः । ३०) 1 विष. 2 सर्प. 3 निर्मलमनसा पुरुषेण । ३१) 1 स्थाने. 2 अन्यत्र ।