________________
-१२. २३ 1 : - अहिंसासत्यव्रतविचारः -
२५१ 989 ) कायेन वाचा मनसा च पापं यजितं तत्क्षपणीयमेभिः ।
त्रिधापि योगो हि शुभाशुभानां यदास्र वाणां कथितो निमित्तम् ॥ १९ 990) हिंसाब्रह्म चुरापायं काये कर्माशुभं मतम् ।
असभ्यासत्यपारुष्यप्रायं वचनगोचरम् ॥२० 991 ) असूर्यमिदमायं मनोव्यापारसंश्रयम् ।
__एतद्विपर्ययाज्ज्ञेयं शुभमेतेषु तत्पुनः ॥ २१ 992 ) हिरण्यकन्यापशुभूमिमुख्यैर्दानैरनेकैः क्षयमेति नैनः ।
यथा हि रोगः पुरुलङ्घनादिसाध्यो न बार्बिहुधोपचारै ः॥ २२ 993 ) यथोपवासक्षपणीयरोगे बायो विधिस्तत्र निरर्थकः स्यात् ।
पापे ऽपि तद्वत्परिचिन्त्य कार्यमन्तर्विधेरन्वगुपार्चनाद्यम् ॥ २३
__ शरीर से, वचन से और मन से जो पाप उपार्जित किया जाता है उस को उन्हीं के द्वारा नष्ट करना चाहिये । कारण यह कि शुभ और अशुभ कर्मोके आश्रवोंका कारण उपर्युक्ततीनों प्रकार का योग ही कहा गया है ॥ ॥ १९॥
. हिंसा, मैथुनसेवन और चोरी आदि कार्य शरीर के विषय में अशुभ माना गया है असभ्य, असत्य और कठोर भाषण करना यह वचनविषयक अशुभ कर्म है । असूया-दूसरे के गुणों में भी दोषारोपण करना, ईर्ष्या- दूसरे के अभ्युदय को नहीं सह सकना - और गर्व ये विकार मनोविकार के आश्रय से उत्पन्न होते हैं । इससे विपरीत आचरण उक्त शरीर, वचत
और मन के विषय में शुभ समझना चाहिये । जैसे-अहिंसा ब्रह्मचर्य व अचार्य आदिक शरीरविषयक शुभ आश्रव हैं ॥ २०-२१ ॥ .
सुवर्ण, कन्या, पशु और भूमि आदि के दानों से विविध पाप का नाश नहीं होता है। जैसे-बहुत लाँघनादिकों से साध्य (नष्ट होने वाला) रोग बाय अनेक उपचारों से साध्य नहीं होता है। जिस प्रकार उपवासों से नष्ट किये जाने वाले रोग पर बाह्य विधि व्यर्थ होती है उसी प्रकार पाप के नाश में भी प्रमुख अभ्यन्तर विधि के पश्चात् पूजा, उपासना आदि रूप बाह्यविधि को करना चाहिये ॥ २२-२३ ॥
. . . १९) 1 PD कायवाङमनोभिः । २०) 1 ग्रामीकवचनम्, D सतां विमुखं वचनम्.2 कठिनम् । २१) 1 असहनशीलता, D परदोषग्रहणप्रायं. 2 कायवाङमनसाम्. 3 कायवाङमनस्सु. 4 शुभम् । २२ ) 1. PD पापम्. 2 प्रचुरलङघन. 3 पूजाऔषधादिभिः, D एतैः हिरण्यादिदानर्योगजातं पापं क्षयं नोपैति । २३) 1 रोगक्षपणे. 2 करणीयम्. 3 पश्चादुपचरणीयम्, D पूजादिकं न साधयन्ति ।