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-११. ५३*१] - आद्यप्रतिमाप्रपञ्चनम् - 898) उक्त च
संदिग्धे ऽपि परे लोके त्याज्यमेवाशुभं बुधैः । ___ यदि न स्यात्ततः किं स्यादस्ति चेन्नास्तिको हतः ॥ ५२*१ 899) मद्यादिस्वादिगेहेषु पानमन्नं च नाचरेत् ।
तदमत्रादिसंसर्ग न कुर्वीत कदाचन ॥ ५२*२ 900) अपाङ्क्तेयैः' समं कुर्वन् संसर्ग भोजनादिषु ।
प्राप्नोति निन्द्यतामत्र परत्र च न सत्फलम् ॥ ५३ 901) दृतिप्रायेषु पानीयं स्नेहं च कुतपादिषु ।
व्रतस्थो वर्जयेन्नित्यं योषितश्चाव्रतोचिताः ॥ ५३*१
जन्मान्तरस्वरूप परलोक के विषय में सन्देह के रहने पर भी विद्वानों को अशुभका-पाप कार्य का-त्याग करना ही चाहिये । यदि नरक स्वर्गादिरूप परलोक नहीं भी हो, तो भी इस से क्या होगा? अर्थात् नरक स्वर्गादि के न होने पर भी अशुभ त्याग से कुछ बिगडता नहीं है और यदि वह परलोक है तो उसको न माननेवाले नास्तिक-चार्वाक - को नष्ट हुआ समझना चाहिये। (दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यदि वह परलोक है तो 'न आस्तिको हतः' अर्थात् उसके अस्तित्व को स्वीकार करनेवाला कुछ नष्ट नहीं हुआ-परलोक में सुखी ही रहनेवाला है )॥ ५२* १ ॥
मद्य आदि का स्वाद लेनेवाले-उन असेवनीय पदार्थों का सेवन करनेवाले -निकृष्ट जनों के घरपर भोजन-पान आदि नहीं करना चाहिये -उनके यहाँ पानी पीना भी अहितकर है। साथ ही उन के यहाँ के बर्तन आदि का भी संसर्ग-उपयोग-कभी नहीं करना चाहिये ||५२*२॥
जो पंक्तिबाह्य जनों के साथ-असदाचरण के कारण जिनका सहभोजनादि से बहिष्कार किया गया है उनके साथ-भोजन आदि के समय संसर्ग करता है वह इस लोक में तो निन्दा को प्राप्त होता है और परलोक में उत्तम फल को-स्वर्गादि सुख को-नहीं प्राप्त होता है ॥५३॥
व्रती पुरुष को चमडे की मशक आदि में रखे हुए पानी का और चमडे के कुप्पेसे रखे हुए तेल-घी आदि का सेवन नहीं करना चाहिये। साथ ही उसे व्रताचरण के अयोग्य स्त्रियों का भी परित्याग करना चाहिये ।। ५३* १ ॥
५२*१) 1 परलोके इत्यर्थः. 2 तर्हि परलोकनिषेधको हतः । ५२*२) 1 मांसमधुमद्यपानगृहेषु. 2 तेषां मद्यादिस्वादिनाम् अमत्रादि भाजनादि । ५३) 1 P D पङक्तिरहितैः । ५३*१) 1 P° कुरुपादिषु, D°कुतुपादिषु ° D तैलं घृतं कूपेषु. 2 व्रतरहिताः स्त्रियः [ परित्यजेत्.] ।