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समन्तभद्र-भारती [परिच्छेद १ उन्हींके शत्रु नहीं, किन्तु अपने एक सिद्धान्तसे अपने दूसरे सिद्धान्तोंका विरोध कर और इस तरह अपने किसी भी सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करनेमें समर्थ न होकर अपने भी शत्रु बने हुए हैं-, उनमेंसे प्रायः किसीके भी यहाँ अथवा किसीके भी मतमें, हे वीर भगवन् ! न तो कोई शुभ कर्म बनता है, न अशुभ कर्म, न परलोक ( अन्य जन्म ) बनता है और ( चकारसे ) यह लोक ( जन्म ) भी नहीं बनता, शुभ-अशुभ कर्मोंका फल भी नहीं बनता और न बन्ध तथा मोक्ष ही बनते हैं किसी भी तत्त्व अथवा पदार्थकी सम्यक् व्यवस्था नहीं बैठती। और इस तरह उनका मत प्रत्यक्षसे ही बाधित नहीं, बल्कि अपने इष्टसे अपने इष्टका भी बाधक है।'
व्याख्या-वास्तव में प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसमें अनेक अन्त-धर्म, गुण-स्वभाव, अंग अथवा अंश हैं। जो मनुष्य किसी भी वस्तुको एक तरफसे देखता है-उसके एक ही अन्तधर्म अथवा गुण-स्वभावपर दृष्टि डालता है—वह उसका सम्यग्द्रष्टा ( उसे ठीक तौरसे देखने-पहचाननेवाला) नहीं कहला सकता। सम्यग्द्रष्टा होनेके लिये उसे उस वस्तुको सब ओरसे देखना चाहिये और उसके सब अन्तों, अंगों, धर्मों अथवा स्वभावोंपर नजर डालनी चाहिये । सिक्केके एक ही मुखको देखकर सिक्केका निर्णय करनेवाला उस सिक्केको दूसरे मुखसे पड़ा देखकर वह सिक्का नहीं समझता और इसलिये धोखा खाता है । इसीसे अनेकान्तदृष्टिको सम्यग्दृष्टि और एकान्तदृष्टिको मिथ्यादृष्टि कहा है। १. अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्व मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥
-स्वयम्भूस्तोत्र