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[ परिच्छेद १ प्रमाणका विषय ' ) होनेसे किसी-न-किसीके प्रत्यक्ष जरूर हैं; जैसे अग्नि आदिक पदार्थ जो अनुमान या प्रमाणका विषय हैं वे किसीके प्रत्यक्ष जरूर हैं । जिसके सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ प्रत्यक्ष हैं वह सर्वज्ञ हैं । इस प्रकार सर्वज्ञकी सम्यक् स्थिति, व्यवस्था अथवा सिद्धि भले प्रकार सुघटित है ।'
समन्तभद्र-भारती
निर्दोष सर्वज्ञ कौन और किस हेतुसे सत्वमेवासि निर्दोष युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक् अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ ६ ॥
' ( हे वीर जिन ! ) वह निर्दोष - अज्ञान तथा रागादिदोषोंसे रहित वीतराग और सर्वज्ञ- - आप ही हैं; क्योंकि आप युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक् हैं - आपका वचन ( किसी भी तत्त्वविषय में ) युक्ति और शास्त्रके विरोधको लिये हुए नहीं है । और यह अविरोध इस तरहसे लक्षित होता है कि आपका जो इष्ट है— मोक्षादितत्त्वरूप अभिमत - अनेकान्तशासन है - वह प्रसिद्धसे - प्रमाणसे अथवा पर प्रसिद्ध एकान्त से - बाधित नहीं है; जब कि दूसरोंका (कपिल-सुगतादिकका) जो सर्वथा नित्यवाद - . अनित्यवादादिरूप एकान्त अभिमत ( इष्ट ) है वह प्रत्यक्षप्रमाणसे ही नहीं किन्तु पर- प्रसिद्ध अनेकान्त से भी बाधित है और इसलिए उन सर्वथा एकान्तमतोंके नायकों में से कोई भी युक्ति - शास्त्राविरोधिवाक् न होनेसे निर्दोष एवं सर्वज्ञ नहीं है ।'
१. प्रमाणका विषय 'प्रमेय' कहलाता है । अनुमेयका अर्थ 'अनुगतं मेयं मानं येषां ते अनुमेयाः प्रमेया इत्यर्थः ' इस वसुनंद्याचार्य के वाक्यानुसार 'प्रमेय' भी होता है और इस तरह अनु हेतु प्रमेयत्व हेतु भी गर्मित है ।