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समन्तभद्र- भारती
उनका प्रयास है कि प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार द्वारा खोजपूर्ण अनेकविध प्रमाणोंसे निर्णीत स्वामी समन्तभद्रके विक्रम सं० दूसरी-तीसरी शताब्दी के समय को वि० सं० सातवीं-आठवीं शताब्दी सिद्ध किया जाय ।
यहाँ उनकी स्थापनाओंको देकर उनपर सूक्ष्म और गहराई से विचार किया जाता है :
( १ ) आप्तपरीक्षागत प्रयोगोंसे सिद्ध है कि सूत्रकार शब्द केवल ० उमास्वामी के लिए ही प्रयुक्त नहीं होता था, दूसरे आचार्योंके लिए भी उसका प्रयोग किया जाता था ।
( २ ) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकगत तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्रकी अनुपपत्तिउपस्थापन और उसके परिहारकी चर्चासे स्पष्ट कलित होता है कि विद्यानन्दके सामने तत्त्वार्थसूत्र के प्रारम्भ में 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इलोक नहीं था ।
( ३ ) अष्टसहस्री तथा आप्तपरीक्षाके कुछ विशेष उल्लेखोंसे सिद्ध होता है कि इसी श्लोकके विषयभूत आप्तकी मीमांसा समन्तभद्रने अपनी आप्तमीमांसा की ।
समीक्षा :
इन तीनों स्थापनाओंकी यहाँ समीक्षा की जाती है । प्रथम स्थापनाके समर्थन में विद्यानन्दके ग्रन्थोंसे कोई ऐसा उल्लेख-प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया, जिसमें उन्होंने उमास्वामीके अतिरिक्त अन्य किसी आचार्यको सूत्रकार या शास्त्रकार कहा हो । तथ्य तो यह है कि विद्यानन्दने अपने किसी भी ग्रन्थ में उमास्वामी के सिवाय अन्य किसी ग्रन्थकर्ताको सूत्रकार या शास्त्र- कार नहीं लिखा । जहाँ कहीं अन्य ग्रन्थकर्ताओंके उन्होंने अवतरण दिये हैं उन्हें उन्होंने उनके नामसे या ग्रन्थ नामसे या केवल 'तदुक्तम्' कहकर उल्लेखित किया है, सूत्रकार या शास्त्रकारके नामसे नहीं । सूत्रकार या शास्त्रकार शब्दका प्रयोग केवल उमास्वामी के लिए किया है । इस सम्बन्धमें हमने विद्यानन्दके ग्रन्थोंपर से खोजकर ३३ अवतरण उदाहरणार्थ