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समन्तभद्र भारती
अष्टहस्रीके तृतीय परिच्छेदके आरम्भमें जो ग्रन्थ-प्रशंसामें पद्य दिया है उसमें उन्होंने इसका 'अष्टशती' नाम भी निर्दिष्ट किया है ।' सम्भवतः आठसौ श्लोकप्रमाण रचना होनेसे इसे उन्होंने 'अष्ठशती' कहा है। लगता है कि इस अष्टशतीको ध्यानमें रखकर ही अपनी 'देवागमालंकृति' व्याख्याको उन्होंने आठ हजार श्लोकप्रमित बनाया और 'अष्टसहस्री' नाम रखा। जो हो, इस तरह यह अकलङ्कदेवकी व्याख्या देवागम-विवृति, आप्तमीमांसा-भाष्य ( देवागम-भाष्य ) और अष्टशती इन तीनों नामोंसे जैन वाङ्मयमें विश्रुत है। इसका प्रायः प्रत्येक स्थल इतना जटिल एवं दुरवगाह है कि साधारण विद्वानोंका उसमें प्रवेश सम्भव नहीं है। उसके मर्म एवं रहस्यको अष्टसहस्रीके सहारे ही ज्ञात किया जा सकता है । भारतीय दर्शन-साहित्यमें इसकी जोड़की रचना मिलना दुर्लभ है । अष्टहस्रीके अध्ययनमें जिस प्रकार कष्टसहस्रीका अनुभव होता है उसी प्रकार इस अष्टशतीके अभ्यासमें भी कष्टशतीका अनुभव उसके अभ्यासीको पदपदपर होता है। २. देवागमालंकृति: ___यह आ० विद्यानन्दकी अपूर्व एवं महत्त्वपूर्ण रचना है। इसे आप्तमीमांसालंकृति, आप्तमीमांसालङ्कार और देवागमालङ्कार इन नामोंसे भी साहित्यमें उल्लिखित किया गया है। आठ हजार श्लोक प्रमाण होनेसे इसे लेखकने स्वयं 'अष्टसहस्री' भी कहा है। देवागमकी जितनी व्याख्याएँ उपलब्ध हैं उनमें यह विस्तृत और प्रमेयबहुल व्याख्या है। इसमें देवा
१. अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात् । विलसदकलङ्कधिषणैः प्रपञ्चनिचितावबोद्धव्या ॥
-अष्टस.पृ.१७८ । २. श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विशायेत ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ॥
-अष्टस० पृ० १५७ ।