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समन्तभद्र-भारती
किन कारणोंसे होता है और पाप किन बातोंसे, यही इस परिच्छेदका विषय है, क्योंकि पुण्य और पापके सम्बन्धमें भी ऐकान्तिक मान्यताएं हैं।
___ इसमें चार कारिकाएं है। ९२वीं कारिकाके द्वारा उस मान्यताको समीक्षा की है जिसमें दूसरेमें दुःख उत्पन्न करनेसे पाप बन्ध और सुख उत्पन्न करनेसे पुण्य बन्ध स्वीकृत है। पर यह मान्यता युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर दूध आदि दूसरे में सुख तथा कण्टकादि दुःख उत्पन्न करनेके कारण उनके भी पुण्यबन्ध और पापबन्ध मानना पड़ेगा। यदि कहा जाय कि चेतन ही बन्धयोग्य हैं, अचेतन दुग्धादि एवं कण्टकादि नहीं, तो वीतराग ( कषाय रहित ) भी पुण्य और पापसे बँधेंगे, क्योंकि वे अपने भक्तोंमें सुख और अभक्तोंमें दुःख उत्पन्न करने में निमित्त पड़ते हैं। यदि कहा जाय कि उनका उन्हें सुख-दुःख उत्पन्न करनेका अभिप्राय न होनेसे उन्हें पुण्य-पापबन्ध नहीं होता तो 'परमें सुख उत्पन्न करनेसे पुण्य और दुख उत्पन्न करनेसे पाप बन्ध होता है' यह एकान्त मान्यता नहीं रहती।
९३ कारिकाके द्वारा उन वादियोंकी भी मीमांसा की है जो कहते हैं कि अपने में दुःख उत्पन्न करनेसे तो पुण्य और सुख उत्पन्न करनेसे पापका बन्ध होता है। कहा गया है कि ऐसा सिद्धान्त मानने पर वीतराग मुनि और विद्वान् मुनि भी क्रमशः कायक्लेशादि दुःख तथा तत्त्वज्ञानादि सुख अपनेमें उत्पन्न करनेके कारण पुण्य-पापसे बँधगे। फलतः वे कभी भी संसार-बन्धनसे छुटकारा न पा सकेंगे। अतः यह एकान्त भी संगत प्रतीत नहीं होता।
६४ के द्वारा उभयकान्तमें विरोध और अनु भयकान्तमें 'अनभय' शब्दसे भी उसका निर्वचन न हो सकनेका दोष पूर्ववत् प्रदर्शित किया गया है।
कारिका ९५ के द्वारा स्याद्वादसे पुण्य और पापको व्यवस्था की गई है। युक्तिपूर्वक कहा गया है कि सुख-दुःख, चाहे अपने में उत्पन्न किये जायें और चाहे परमें । यदि वे विशुद्धि ( शुभ परिणामों ) अथवा संक्लेश ( अशुभ परिणामों ) से पैदा होते हैं या उन परिणामोंके जनक है तो