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प्रस्तावना
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से सम्भव नहीं है । अतः संज्ञाओं ( शब्दों) को अभिप्रायका सूचक नहीं मानना चाहिए, किन्तु उन्हें सत्यार्थ ( बाह्यार्थ ) का सूचक स्वीकार करना चाहिए।
अगली ८५-८७ तक तीन कारिकाओंके द्वारा ग्रन्थकार अपने उक्त कथनका सबल समर्थन करते हुए प्रतिपादन करते हैं कि प्रत्येक वस्तुको तीन संज्ञाएँ होती हैं। बुद्धिसंज्ञा, शब्दसंज्ञा और अर्थसंज्ञा । तथा ये तीनों संज्ञाएँ बुद्धि, शब्द और अर्थ इन तीनकी क्रमशः वाचिका हैं और तीनोंसे श्रोताको उनके प्रतिबिम्बात्मक बुद्धि, शब्द और अर्थरूप तीन बोध होते हैं। अत: 'जीव' यह शब्द केवल जीवबुद्धि या जीवशब्दका वाचक न होकर जीवअर्थ, जीवशब्द और जीवबुद्धि इन तीनोंका वाचक है। वास्तवमें उनके प्रतिबिम्बात्मक तीन बोध होनेसे उन तीनों संज्ञाओंके वाच्यार्थ तीन हैं, यह ध्यान देनेपर स्पष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह कि प्रत्येक पदार्थ तीन प्रकारका है-बुद्धयात्मक, शब्दात्मक और अर्थात्मक । और तीनोंकी वाचिका तीन संज्ञाएं हैं, जिनका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है और इस तरह समस्त संज्ञाएँ (शब्द) अपने अर्थ सहित हैं ।
यद्यपि विज्ञानवादीके लिए ऊपर कहा गया हेतु ( संज्ञा होनेसे ) असिद्ध है, क्योंकि उसके यहाँ विज्ञानके अलावा संज्ञा (शब्द) नहीं है। उसके लिए ग्रन्थकार कहते हैं कि जब हम कुछ कहते या सुनते या जानते हैं तो हम वक्ता, श्रोता या प्रमाता कहे जाते हैं और ये तीनों भिन्न-भिन्न हैं, एक नहीं हैं । तथा इन तीनोंके तीन कार्य भी अलग-अलग होते हैं। वक्ता अभिधेयका ज्ञान करके वाक्य बोलता है, श्रोता उसको श्रवण कर उसका बोध करता है और प्रमाता शब्द और अर्थरूप प्रमेयकी परिच्छित्ति ( प्रमा) करता है । ये तीनों ही उन तीनोंके बिलकुल जुदेजुदे कार्य हैं। विज्ञानवादी इन अनुभवसिद्ध पदार्थोका अपन्हव करनेका साहस कैसे कर सकता है। ऐसी दशामें वह हेतुको असिद्धादि दोषोंसे युक्त नहीं कह सकता। यदि वह इन अनुभवसिद्ध पदार्थों (अभिधेय, अभिधेयके ग्राहक वक्ता और श्रोता) को विभ्रम कहे तो उसका विज्ञानवाद और साधक प्रमाण भी विभ्रमकोटिमें आनेसे कैसे बच सकते हैं।