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प्रस्तावना
उनका विधान 'दुविधामें दोनों गये माया मिली न राम' कहावतको चरितार्थ करता है । अर्थात् सामान्य और समवाय दोनों की स्थिति भेदवाद -
वाँडोल है । इसके अतिरिक्त सामान्य और समवायमें परस्पर सम्बन्ध सम्भव न होने से उनसे द्रव्य, गुण और कर्मका भी सम्बन्ध सम्भव नहीं है । सामान्य और समवाय में परस्पर सम्बन्ध क्यों सम्भव नहीं है ? इसका कारण यह है कि वे द्रव्य न होनेसे उनमें संयोगसम्बन्ध तो स्वयं वैशेषिकोको भी इष्ट नहीं है । समत्राय भी उनमें सम्भव नहीं है, क्योंकि उन्हें अवयव - अवयवी गुण-गुणी आदि रूपमें स्वीकृत नहीं किया गया । 'सामान्यं समवायि' - सामान्य समवायवाला है, इस प्रकारसे उनमें विशेषण - विशेष्य सम्बन्धकी भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि एक समवायके सिवाय अन्य समवायान्तर वैशेषिकोंने नहीं माना। अन्यथा अनवस्था दोषसे वह मुक्त नहीं हो सकता । हाँ, उनमें एकार्थसमवाय की कल्पना की जा सकती थी, पर वह भी नहीं की जा सकती, क्योंकि घटत्वादि सामान्य घटादिमें समवायसे रह जानेपर भी समवाय उनमें समवेत नहीं है । स्पष्ट है कि वैशेषिकाने समवाय के रहनेके लिए अन्य समवाय नहीं स्वीकार किया - एक ही सयवाय उन्होंने माना है । इस तरह जब सामान्य और समवाय दोनोंमें परस्पर सम्बन्ध सम्भव नहीं है तो ये असम्बद्ध रहकर द्रव्यादिसे सम्बन्धित नहीं हो सकते । फलतः तीनों ( सामान्य, समवाय और द्रव्यादि ) बिना सम्बन्धके खपुष्प तुल्य ठहरते हैं ।
वैशेषिकोंमें कोई परमाणुओंमें पाक ( अग्निसंयोग ) होकर द्वणुकादि अवयवी में क्रमशः पाक मानते हैं और कोई परमाणुओंमें किसी भी प्रकारकी विकृति न होनेसे उनमें पाक ( अग्निसंयोग ) न मानकर केवल द्वयणुकादि ( अवयवी ) में पाक स्वीकार करते हैं । जो परमाणुओंमें पाक नहीं मानते उनका कहना है कि परमाणु नित्य ( अप्रच्युत- अनुत्पन्न - स्थिरैकरूप ) हैं और इसलिए वे द्वणुकादि सभी अवस्थाओंमें एकरूप बने रहते हैंउनमें किसी भी प्रकारकी अन्यता ( भिन्नरूपतारूप परिणति ) नहीं होती उनमें सर्वदा अनन्यता ( एकरूपता ) विद्यमान रहती है । इसी ( किन्हीं वैशेषिकों की ) मान्यताको आ० समन्तभद्रने 'अणुओंका अनन्यतैकान्त