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कारिका १०९,११०] देवागम विपक्षरूप वह अवश्य होता है क्योंकि विधि-निषेधका परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है और इससे जिस विधि या निषेध-वाक्यके द्वारा वह नियमित किया जाता है वह उस समय मुख्य होता है
और प्रतिपक्षी वाक्यका विषय गौण । यदि ऐसा न माना जायविधि-निषेधरूपसे उसका अवश्यंभावीपना स्वीकार न किया जाय – तो उस केवल विधि या केवल निषेध-वाक्यसे जो विशेष्य ( वस्तुतत्त्व ) है वह नहीं बन सकेगा; क्योंकि प्रतिषेध-रहित विधिके और विधिरहित प्रतिषेधके विशेषणपना नहीं बनता और विधि-प्रतिषेध दोर्नोसे रहितके गगन-कुसुमके समान विशेष्यपना नहीं बनता है । और इस तरह सत् असत् आदि वाक्योंमें विधिनिषेधकी गौण तथा प्रधानरूपसे वृत्तिका होना लक्षित होता है।'
तदतद्रूप वस्तुको तद्रूप ही कहनेववाली वाणी सत्य नहीं तदतद्वस्तु वागेषा तदेवेत्यनुशासती । न सत्या स्यान्मृषा-वाश्यैः कथं तत्त्वार्थ-देशना ॥११०॥
'( यदि यह कहा जाय कि वाक्य विधिके द्वारा ही वस्तुतत्त्वका नियमन करता है तो यह सर्वथा एकान्त ठीक नहीं है; क्योंकि ) वस्तु तत्-अततरूप है-दृष्टि-भेदके साथ अविनाभावसम्बन्धको लिये हुए सत्-असत्, नित्य-अनित्यादि अनेकान्तरूप है-जो वाक्य (वाणी) उसे सर्वथा तत्रूप—सत्-नित्यादिरूपही प्रतिपादन करता है-उसके प्रतिपक्षी अविनाभावधर्मको गौण किये हुए न होकर उसका विरोधक है-वह सत्य नहीं होता तब ( ऐसे) मिथ्या-वाक्योंसे तत्वार्थको-यथार्थ वस्तुस्वरूपकीदेशना ( कथनी ) कैसे बन सकती है ?- नहीं बन सकती।'
व्याख्या-यद्यपि ये सभी वाक्य विधि और प्रतिषेध दोनों