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अष्टम परिच्छेद
दैवसे सिद्धि के एकान्तकी सदोषता
दैवादेवार्थसिद्धिश्चेदेवं पौरुषतः दैवतश्वेद निर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं
कथम् । । भवेत् ॥ ८८ ॥
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'यदि ( मीमांसकमतानुसार ) दैवसे ही अर्थकी संपूर्ण प्रयोजन रूप कार्यकी – सिद्धि मानी जाय तो फिर दैवरूप कार्यकी सिद्धि पौरुषसे – कुशला कुशल- समाचरण - लक्षण - पुरुषव्यापार से – कैसे कही जा सकती है ? — नहीं कही जा सकती; क्योंकि वैसा कहनेसे प्रतिज्ञाको हानि पहुँचती है अर्थात् यह कहना बाधित होता है कि 'सर्व अर्थकी सिद्धि दैवसे होती है' । यदि पौरुषसे दैवकी सिद्धि न मानकर दैवान्तरसे दैवकी सिद्धि मानी जाय तो फिर मोक्षका अभाव ठहरता है- क्योंकि पूर्व पूर्व दैवसे उत्तरोत्तर दैवकी प्रवृत्ति तब समाप्त नहीं हो सकेगी और मोक्षके अभावसे तत्कारणभूत पौरुष निष्फल हो जाता अथवा व्यर्थ ठहरता है ।'
( यदि यह कहा जाय कि पुरुषार्थसे दैवका क्षय होने पर मोक्ष की सिद्धि होती है अतः पुरुषार्थको निष्फल नहीं कहा जा सकता, तो फिर वही प्रतिज्ञा-हानि उपस्थित होती है – पुरुषार्थसे मोक्षप्राप्तिको स्वीकार कर लेनेपर सब कुछ दैवसे उत्पन्न ( सिद्ध ) होता है इस प्रकारकी जो प्रतिज्ञा है वह स्थिर नहीं रहती - बाधित ठहरती है । इसपर यदि मीमांसकोंके द्वारा यह कहा जाय कि मोक्ष - कारण - पौरुषके भी दैवकृत होनेसे परंपरासे मोक्ष भी दैवकृत सिद्ध होता है, इसमें प्रतिज्ञा- हानिकी कोई