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समन्तभद्र- भारती
[ परिच्छेद ४
व्यक्तियोंमें उनका सद्भाव सिद्ध नहीं होता; जबकि वैशेषिक इन दोनों को नित्य, व्यापक और एक एवं प्रत्येक में पूर्णरूप से व्याप्त मानते हैं, जो स्पष्टतः युक्ति और प्रतीतिके विरुद्ध है ।
सर्वथाऽनभिसम्बन्धः सामान्य-समवाययोः । ताभ्यामर्थो न सम्बद्धस्तानि त्रीणि ख- पुष्पवत् ॥ ६६ ॥
' ( वैशेषिक मतानुसार ) जब सामान्य और समवाय दोनों के सर्वथा अनभिसम्बन्ध है - परस्परमें एकका दूसरे के साथ संयोगादिरूप कोई प्रकारका भी सम्बन्ध नहीं है--तब उन दोनोंके साथ द्रव्य, गुण और कर्मरूप जो अर्थ है उसका भी सम्बन्ध नहीं रहता । ( और इसलिये ) सामान्य, समवाय तथा अर्थ ये तीनों ही आकाश- पुष्पके समान अवस्तु ठहरते हैं । क्योंकि असत्का और अवस्तुका कूर्म - रोमादिकी तरह कोई भी स्वरूप नहीं बन सकता ।' अनन्यता - एकान्तकी सदोषता
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अनन्यतैकान्तेऽणूनां संघातेऽपि विभागवत् । असंहतत्वं स्याद्भूतचतुष्क - भ्रान्तिरेव सा ॥६७॥ 'यदि ( बौद्ध मतानुसार ) परमाणुओंकी अनन्यताका सर्व अवस्थाओं में स्वरूपान्तरपरिणमनरूप अन्यता के अभावकाएकान्त माना जाय तो स्कन्धरूप में उनके मिलनेपर भी न मिलनेकी भ्रान्तिमें परस्पर असम्बद्धता रहेगी और ऐसा होने पर बौद्धोंके द्वारा प्रतिपादित जो भूतचतुष्क है - परमाणुओंका पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ऐसे चार स्कन्धोंके रूपमें जो कार्य हैं - वह ( वास्तविक न होकर ) भ्रान्तरूप ही ठहरेगा । ( यदि भूतचतुष्टयको भ्रान्तिरूप न माना जायगा तो परमाणुओंका संघातावस्थामें स्वरूपान्तर मानना होगा और वैसा मानने पर सर्वथा अनन्यताका एकान्त नहीं बन सकेगा । ) '
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