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देवागम
रखनेपर तीसरा अर्थ हो जाता है । वह कारिका है 'विरोधान्नोभयेकात्म्यं' नामकी, जिसे ग्रन्थमें ९ स्थानोंपर रखा गया है और ग्रन्थ-सन्दर्भकी दृष्टिसे अपने-अपने स्थानपर उसका अलग-अलग अर्थ होता है-एक स्थानपर जो अर्थ घटित होता है वह दूसरे स्थान पर घटित नहीं होता।
ऐसे महान् आचार्यके इतने गहन, गंभीर तथा अर्थगौरवको लिए हुए कलापूर्ण ग्रन्थका अनुवाद मेरे जैसा व्यक्ति करे, जिसने न किसी विद्यालय-कालेजमें व्यवस्थित शिक्षा ग्रहण कर डिग्री प्राप्त की है और न साक्षात् गुरुमुखसे ही ग्रन्थका अध्ययन किया है, यह आश्चर्यकी ही बात है ! फिर भी स्वामी समन्तभद्र और उनके वचनोंके प्रति मेरी जो भक्ति है वही यह सब कुछ अद्भुत कार्य मुझसे करा रही है'त्वद्भक्तिरेव मुखरोकुरुते बलान्माम्' मानतुङ्गाचार्यका यह वाक्य यहाँ ठीक घटित होता है। इसी भक्तिसे प्रेरित होकर मैंने इससे पहले स्वामीजीके तीन ग्रन्थों-स्वयम्भस्तोत्र, युक्त्यनुशासन और समीचीन धर्मशास्त्रके अनुवादादि प्रस्तुत किये हैं जो विद्वानोंको रुचिकर जान पड़े हैं। इसके किए स्व. न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजीका एक वाक्य यहाँ उद्धृत कर देना अनुचित न होगा, जो उन्होंने तत्त्वानुशासनके 'प्राक्कथन' में ग्रन्थके अनुवाद विषयमें लिखा है_ 'युक्त्यनुशासन जैसे जटिल और सारगर्भ महान् ग्रन्थका सुन्दरतम अनुवाद समन्तभद्र स्वामीके अनन्यनिष्ठ भक्त साहित्य-तपस्वी पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने जिस अकल्पनीय सरलतासे प्रस्तुत किया है वह न्यायविद्याके अधिकारियोंके लिए आलोक देगा।"
इस प्रकारके विद्वद्वद्वाक्योंसे मुझे प्रोत्साहन मिलता रहा और मैं बराबर अपने कार्यमें अग्रसर होता रहा हूँ।
देवागमकी प्राप्ति मुझे आजसे कोई ७० वर्ष पहले जयपुरके पं० जयचन्दजीकी जयपुरी भाषामें लिखी टीका-सहित हुई थी, जिसकी मैंने स्वाध्यायके अनन्तर निज पठनार्थ प्रेमपूर्वक प्रतिलिपि भी अच्छे पुष्ट कागजके शास्त्राकार खुले पत्रोंपर की थी, जिसकी पत्रसंख्या ९० है और जो मंगसिर बदी सप्तमी संवत् १९५५ को लिखकर समाप्त हुई थी।