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— कारिका ५४ ]
देवागम होता है कि उस हेतुसे परमाणु-क्षण उत्पन्न होते हैं या स्कन्ध-सन्ततियाँ ? प्रथम पक्ष परमाणु-क्षणोंका उत्पन्न होना माननेसे स्थाप्य-स्थापक और विनाश्य-विनाशकभावकी तरहहेतु-फलभावका भी विरोध उपस्थित होता है। तब सहेतुका उत्पत्ति कैसे बन सकती है ? कार्य-कारणके अभाव होनेपर ये स्थिति, उत्पत्ति और व्यय धर्म विरोधको प्राप्त होते हैं; क्योंकि परमाणु निरंश होते हैं। "न हेतु-फलभावादिरन्यभावदनन्वयात्' इस वाक्य-द्वारा ४३वीं कारिकाके अन्तर्गत क्षणिक-एकान्तमें पहले ही कार्य-कारण-भावका निषेध किया जा चुका है। स्थिति और विनाशकी तरह अहेतुका उत्पत्ति भी नहीं बनती; क्योंकि स्थाप्य-स्थापकके अभावमें जिस प्रकार स्थितिका और विनाश्यविनाशकके अभावमें जिस प्रकार विनाशका भी अभाव होता है उसी प्रकार हेतु-फलभावके अभावमें उत्पत्तिका भी अभाव होता है, तब अहेतुका उत्पत्तिकी कल्पना कैसी ? यदि दूसरापक्षस्कन्ध-सन्ततियोंका उत्पन्न होना-माना जाय तो) स्कन्धसन्ततियाँ बौद्धोंके यहाँ परमार्थ सत् न होनेसे असंस्कृत हैं—अकार्यरूप हैं—तब उनके लिये हेतुका समागम कैसा ? साध्यके अभावमें साधनका भी अभाव होता है । अतः ( रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार रूपमें माने गये ) बौद्धोंके जो पाँच स्कन्ध हैं वे कोई पारमार्थिक सत् न होकर संवृतिरूप कल्पना-मात्र हैं; उनके स्थिति, उत्पत्ति और विनाशका विधान गधेके सींगकी तरह नहीं बनता।- गधेके सींगका सद्भाव न होनेसे जैसे उसमें स्थिति, उत्पत्ति और विनाश ये तीनों घटित नहीं होते वैसे ही परस्पर असंबद्ध रूपरस-गन्ध-स्पर्शके परमाणुरूप 'रूपस्कन्ध', सुख-दुःखादिरूप 'वेदना