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कारिका ५३ ]
देवागम विरूपकार्यारम्भके लिये हेतुकी मान्यतामें दोष विरूप-कार्यारम्भाय यदि हेतु-समागमः। श्राश्रयिभ्यामनन्योऽसावविशेषादयुक्तवत् ॥५३॥
'( बौद्धमतमें अन्वयके अभाव अथवा निरन्वय-विनाशके स्वीकार करनेसे सरूप-सदृशकार्य कोई होता नहीं, तब ) यदि बौद्धोंके द्वारा विसदृशकार्यके आरम्भके लिये हेतुका समागम इष्ट किया जाता है-हिंसाके हेतुरूप हिंसक ( वधक ) का और मोक्षके हेतुरूप सम्यक्त्वादि अष्ट-अंगका व्यापार माना जाता है तो वह हेतु-समागम नाश तथा उत्त्पाद दोनोंका कारण होनेसे उनका आश्रयभूत है और इसलिये अपने आश्रयी नाश
और उत्पादरूप दोनों कार्योंके साथ अनन्यरूप है—जो मुद्गरप्रहार घटनाश-कार्यका हेतु है वही कपालों ( ठीकरों ) के उत्पाद-कार्यका भी हेतु है, दोनों कार्योंका हेतु भिन्न-भिन्न न होनेसे दोनोंके लिये अयुक्तकी भाँति-तादात्म्यको प्राप्त शीशमपना और वृक्षपनाके कारण-कलापकी तरह-एक ही हेतुका व्यापार ठीक घटित होता है और इससे बौद्धोंका नाश-कार्य भी सहेतुक ठहरता है, जिसे वे निर्हेतुक बतलाते है, यह एक हेतु-दोष इस हेतु-समागमकी मान्यतामें उपस्थित होता है। यदि विनाशके लिये हेतुका समागम नहीं, तो उत्पादके लिये भी हेतुका समागम मत मानों; क्योंकि कार्यकी दृष्टिसे-नाश और उत्पाद दोनोंमें कोई भेद न होनेसे—एकको निर्हेतुक और दूसरेको सहेतुक बतलाना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।'
व्याख्या-बौद्धोंसे प्रश्न है कि यदि विनाश निर्हेतुक है, उसका कोई कारण नहीं है, वह स्वरसतः होता है, तो कारणों( हिंसाजनक हिंसक और मोक्षहेतु सम्यक्त्वादि अष्टाङ्ग ) का