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कारिका ४६ ] देवागम किसी भी धर्मके विषयमें यह कहना नहीं बन सकता कि वह सत्-रूप है या असत्-रूप है अथवा सत्-असत् दोनों ( उभय ) रूप है या दोनोंरूप नहीं ( अनुभयरूप ) है; क्योंकि सर्वथा सत् कहनेपर उसकी उत्पत्तिके साथ विरोध आता है, सर्वथा असत् कहने पर शून्य-पक्षमें जो दोष दिया जाता है वह घटित होता है, सर्वथा उभयरूप कहनेपर दोनों दोषोंका प्रसंग आता है और सर्वथा अनुभय पक्षके लेनेपर वस्तु निविषय, नीरूप, निःस्वभाव अथवा निरुपाख्य ठहरती है और तब उसमें किसी भी विकल्पकी उत्पत्ति नहीं बनती-अतः उन सन्तान सन्तानीका भी तत्त्व (एकत्व-अभेद) धर्म तथा अन्यत्व ( नानात्व-भेद ) धर्म ( धर्म होनेसे ) अवाच्य ठहरता है। तदनुसार उभयत्व-अनुभयत्व धर्म भी ( अवाच्य ठहरते हैं ); क्योंकि वस्तुके धर्मको वस्तुसे सर्वथा अनन्य ( अभिन्न ) कहनेपर, वस्तुमात्रका प्रसंग आता है, वस्तुसे सर्वथा अन्य ( भिन्न ) कहनेपर व्यपदेशकी सिद्धि नहीं होती अर्थात् यह कहना नहीं बनता कि अमुक वस्तुका यह धर्म है, सर्वथा उभय ( भिन्नाभिन्न ) कहनेपर दोनों दोष आते हैं
और सर्वथा अनुभय ( न भिन्न और न अभिन्न ) कहनेपर वस्तु निरुपाख्य एवं निःस्वभाव ठहरती है-इससे सन्तान-सन्ततीके धर्म-विषयमें कुछ भी कहना नहीं बनता; ( तो यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि )
अवक्तव्यकी उक्तमान्यतामें दोष श्रवक्तव्यचतुष्कोटिविकल्पोऽपि न कथ्यताम् । असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेष्य-विशेषणम् ॥४६॥ 'तब तो ( बौद्धोंको ) 'चतुष्कोटिविकल्प अवक्तव्य हैं' यह भी नहीं कहना चाहिये;-क्योंकि सब धर्मोंमें उक्तिका अयोग