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कारिका ३७ ]
देवागम होता है कि जो भेद और अभेद परस्पर निरपेक्ष हैं वे विरुद्ध ही हैं, प्रमाण-गोचर होनेसे भेदैकान्तादिकी तरह ।'
इति देवागमाप्तमीमांसायां द्वितीयः परिच्छेदः ।
तृतीय परिच्छेद
नित्यत्व-एकान्तकी सदोषता नित्यत्वैकान्त-पक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाऽभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ॥३७॥
'यदि नित्यत्व एकान्तका पक्ष लिया जाय—यह माना जाय कि पदार्थ सर्वथा नित्य है, सदा अपने एक ही रूपमें स्थिर रहता है—तो विक्रियाकी उपपत्ति नहीं हो सकती—अवस्थासे अवस्थान्तररूप परिणाम, हलन-चलनरूप परिस्पन्द अथवा विकारात्मक कोई भी क्रिया पदार्थ में नहीं बन सकती; कारकोंकाकर्ता, कर्म, करणादिका--अभाव पहले ही (कार्योत्पत्तिके पूर्व ही) होता है-जहाँ कोई अवस्था न बदले वहाँ उनका सद्भाव वनता ही नहीं-और जब कारकोंका अभाव है तब (प्रमाताका भी अभाव होनेसे ) प्रमाण और प्रमाणका फल जो प्रमिति (सम्यग्ज्ञप्ति—यथार्थ जानकारी) ये दोनों कहाँ बन सकते हैं ?-- नहीं बन सकते । इनके तथा प्रमाताके अभावमें 'नित्यत्व एकान्तका पक्ष लेनेवाले सांख्योंके यहाँ जीवतत्त्वकी सिद्धि नहीं बनती और न दूसरे ही किसी तत्त्वकी व्यवस्था ठीक बैठती है।'