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कारिका ३६ ] देवागम हो सकती है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) अनन्तधर्मा विशेष्यमें विवक्षा तथा अविवक्षा जो की जाती है वह सत् विशेषणकी ही की जाती है असत्की नहीं और यह उनके द्वारा की जाती है जो उस विशेषणके अर्थो या अनर्थो हैं-अर्थी विवक्षा करता है और अनर्थी अविवक्षा। जो सर्वथा असत् है उसके विषयमें किसीका अर्थीपना या अनर्थीपना बनता ही नहीं-वह तो सकल-अर्थ-क्रियासे शून्य होनेके कारण गधेके सींगके समान अवस्तु होता है।'
एक वस्तुमें भेद और अभेदकी अविरोध-विधि प्रमाण-गोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ न संवृती । तावेकत्राविरुद्धौ ते गुण-मुख्य-विवक्षया ॥३६॥
‘( हे वीर जिन ! ) भेद ( पृथक्त्व ) और अभेद ( एकत्वअद्वैत ) दोनों ( धर्म ) सतरूप हैं—परमार्थभूत है—-संवृतिके विषय नहीं-कल्पनारोपित अथवा उपचारमात्र नहीं है; क्योंकि दोनों प्रमाणके विषय हैं-( इसीसे ) आपके मतमें वे दोनों एक वस्तुमें गौण और मुख्यको विवक्षाको लिये हुए एकमात्र अविरोधरूपसे रहते हैं--फलतः जिनके मतमें भेद और अभेदको परस्पर निरपेक्ष माना है उनके यहाँ वे विरोधको प्राप्त होते हैं और बनते ही नहीं।'
( ऐसी स्थितिमें (१) सर्वथा भेदवादी बौद्ध, जो पदार्थोंके भेदको ही परमार्थ सत्के रूपमें स्वीकार करते हैं--अभेदको नही; अभेदको संवृति ( कल्पनारोपित ) सत् बतलाते हैं और अन्यथा विरोधकी कल्पना करते हैं; (२) सर्वथा अभेदवादी ब्रह्माद्वैती आदि, जो पदार्थोंके अभेदको ही तात्त्विक मानते हैंभेदको नहीं; भेदको कल्पनारोपित बतलाते हैं और अन्यथा दोनोंमें