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दव्यसंगचा
उत्थानिका : अब दोनों भी चारित्र मोक्ष के कारण होते हैं, ऐसा कहते
हैं
गाथार्थ : [जं] जो[ मुणी ] मुनिगण[ दुविहं पि] दोनों ही [ मोक्खहेरें] मोक्षहेतुओं को [णियमा] नियम से [झाणे] ध्यान में [झाउण] ध्या लेते हैं [ तम्हा ] इसलिए [ पयत्तचित्ता] प्रयत्नचित्त से [ झाणं ] ध्यान का [ जूयं ] तुम सब [ समभसह ] अभ्यास करो।। 47 ॥ टीकार्थ : तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समभसह उस कारण से प्रयत्नचित्त हो कर तुम सब ध्यान का अभ्यास करो। अभ्यास क्यों करें? क्योंकि पाउणदि प्राप्त करता है, कौन प्राप्त करता है? मुणी मुनि, किस प्रकार? णियमा निश्चय से, कहाँ प्रास करता है? झाणे ध्यान में स्थित हो कर प्राप्त करता है, यह अर्थ है, क्या प्राप्त करता है? दुविहं पि दोनों ही प्रकार का चारित्र, वह कैसा है? मोक्खहेउं मोक्ष का कारण है। भावार्थ : व्यवहार रत्नत्रय एवं निश्चय रत्नत्रय की सिद्धि ध्यान के द्वारा ही होती है। अत:, हे भव्यो! यदि तुम मुमुक्षु हो अर्थात् मोक्ष के इच्छुक हो, तो सावधान हो कर ध्यान का अभ्यास करो।। 47 ॥ पाठभेद : मोक्खहेडं = मुक्खहेर्ड
झाणे झाऊण = झाणे पाउणदि
1147॥
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| उत्थानिका : इदानी आचार्यः शिष्यान् प्रति शिक्षामाह - गाथा : मा मुझह मा रज्जह मा रूसह इणि? अत्थेसु।
थिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए। 48 ।। टीका : अहो शिष्याः!थिरमिच्छह जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए स्थिरमिच्छत यदि चित्तं किमर्थम्? विचित्रध्यानप्रसिध्यर्थम्। तदा मा
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