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दव्यसंगहा
मइओ णिओ अप्पा निश्चय नय की अपेक्षा से। उस त्रितयात्मक निजात्मा अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन रत्नत्रयस्वरूप आत्मा है। जो रत्नत्रय है, वहीं आत्मा है तथा जो आत्मा है, वहीं रत्नत्रय है।
भावार्थ : व्यवहार नय भेदग्राहक होता है। उस की अपेक्षा से रत्नत्रय मोक्ष का कारण है।
निश्चयनय स्व-द्रव्य सापेक्ष एवं अभेदग्राही होता है। उस की अपेक्षा से रत्नत्रयात्मक आत्मा ही मोक्ष का कारण है।। 39 ।।
पाठभेद : मोक्खस्स = मुक्खस्स
जाणे
हवदि
।।39||
उत्थानिका : अयमर्थं दृढयन्नाह - गाथा : रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाण मुइत्तु अण्णदवियम्हि।
तम्हा तत्तियमइओ हवदि हु मोक्खस्स कारणं आदा।। 40॥ टीका : तम्हा तत्तियमइओ हवदि हु मोक्खस्स कारणं आदा तस्मात् तत्त्रियात्मको दर्शनज्ञानचारित्ररूपो भवति, हि स्फुटं मोक्षस्य हेतुरात्मा, तस्मात् कस्माद्यस्मात्, रयणत्तयं ण वट्टइ, रत्नत्रयं न वर्तते, क्व? अण्णदवियम्मि, अन्यस्मिन्शरीरादिद्रव्ये, किं कृत्वा? अप्पाण मुइत्तु आत्मानं मुक्त्वा, त्यक्त्वा। आत्मनो रत्लत्रयं वर्तते न परद्रव्ये। उत्थानिका : इसी अर्थ को दृढ़ करते हुए कहते हैं - गाथार्थ : [रयणत्तयं] रत्नत्रय [ अप्पाण ] आत्मा को [ मुत्तु] छोड़ कर[अण्णदवियम्हि ] अन्य द्रव्यों में[ण] नहीं [ वट्टइ ] रहता। [ तम्हा]
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