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दयसंगह
टीका : जेण भावेण सडदि येन परिणामेण सडति गलति, किं तत्? कम्मपुग्गलं कर्मरूपं पुद्गलम्। कथंभूतम्? भुत्तरसं भुक्तो रसः शक्तिर्यस्य तद्भुक्तरसम्। केन कृत्वा? जह कालेण तवेण य यथा कालेन सविपाकरूपेण तपसा च , हठादविपाकरूपेण इत्येवं द्विविधानिर्जरा सातव्या। तमाडरपंच, दमणो गलनं च एपा द्रव्यनिर्जरा इति द्विप्रकारा ज्ञातव्या।
उत्थानिका : अब निर्जरा के दो भेदों को कहते हैं -
गाथार्थ : [जहकालेण] यथाकाल में [य] और [तवेण] तप से [भुत्तरसं ] जिस का फल भोग किया है, ऐसा [ कम्मपुग्गलं ] कर्मपुद्गल [जेण] जिस [भावेण] भाव से [ सड़दि] झडता है [च ] और [तस्सडणं] कर्मों का झड़ना [ इदि ] ऐसी [णिजरा ] निर्जरा [ दुविहा] दो प्रकार की [ णेया ] जाननी चाहिये। टीकार्थ : जेण भावेण सडदि जिस परिणाम से सड़ता है, गलता है, क्या गलता है? कम्मपुग्गलं कर्म रूप पुद्गल, किस प्रकार? भुत्तरसं भोग ली है रस यानि शक्ति जिस की, किस के द्वारा? जह कालेण तवेण य जैसे कालानुसार सविपाक रूप से तथा तप से हठपूर्वक पका कर के यानि अविपाक रूप से। ये निर्जरा के दो भेद जानने चाहिये। तस्सडणं और उन कर्मों का गलना द्रव्यनिर्जरा है, ऐसे निर्जरा के दो प्रकार जानने चाहिये। भावार्थ : उदयगत कर्म फल दे कर झड़ जाते हैं, यह सविपाक निर्जरा है। कर्मों को उदयकाल से पूर्व ही उदय में लाकर खिराना, अविपाक निर्जरा है।
जिन परिणामों से कर्म का एकदेश क्षय होता है, उन परिणामों को भाव निर्जरा कहते हैं तथा कर्मों का झड़ जाना द्रव्यनिर्जरा है।। 3 ।।
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