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दस्त्रसंगहTE
लिए तत्त्वार्थसूत्र, पंचास्तिकाय आदि अनेक ग्रंथों की रचना हुई। दव्यसंगह ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय भी यही है। __ ग्रंथ का नाम : प्रस्तुत ग्रंथ का नाम दव्यसंगह है। इस नाम की उद्घोषणा स्वयं ग्रंथकर्ता ने ग्रंथान्त में की है। यथा -
दव्यसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदासुदपुण्णा। सोधयंतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंदमुणिणा भणियं जं॥ 58॥
अर्थात् : अल्पज्ञानी नेमिचन्द्र मुनि के द्वारा जो यह द्रव्यसंग्रह नामक ग्रंथ कहा गया है, उसे शास्त्रज्ञ, समस्त दोषों से रहित पुनिनाथ शोधन करें। यह ग्रंथ द्रव्यसंग्रह इस नाम से सिद्ध है। मूल :
य याचिका स्पष्ट नामोल्लेख किया गया है, तथापि समस्त हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद तथा ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका के साथ इस ग्रंथ के जितने संस्करण प्राप्त होते हैं, उस में द्रव्यसंग्रह नाम प्रकाशित किया गया है। प्राकृत ग्रंथों को भी प्रायः संस्कृत अथवा हिन्दी नाम से प्रकाशित करने की परंपरा कब से प्रारंभ हुई? यह अन्वेषणीय है। हाँ - यह सत्य है कि समयपाहुड, पवयणपाहुड, अट्ठपाहुड, तिलोयसार आदि अनेक ग्रंथ अपने संस्कृत नाम में ही आज लब्धप्रतिष्ठ हैं। अस्तु, वही सुप्रसिद्ध कृति अपने मूल नाम के साथ प्रकाशित हो रही है, यह अत्यन्त हर्ष का विषय है। __ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय : ग्रंथ का अन्त:परीक्षण करने पर यह सुस्पष्ट होता है कि ग्रंथकर्ता ने पंचास्तिकाय ग्रंथ का अनुसरण किया है। पंचास्तिकाय तीन अधिकारों में विभक्त है और यह ग्रंथ भी। तीनों अधिकारों का वर्ण्य विषय भी समान है, अत: इस ग्रंथ को लघुपंचास्तिकाय कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इस ग्रंथ का प्रथम अधिकार द्रव्याधिकार एवं पंचास्तिकायाधिकार है। इस अधिकार में जीव का लक्षण एवं उस के अधिकारों का वर्णन सर्वप्रथम किया गया है। 14 गाथाओं में जीवद्रव्य का वर्णन करने के उपरान्त 13 गाथाओं में शेष अजीव द्रव्यों का वर्णन तथा अस्तिकायों का वर्णन किया गया है।
नवपदार्थाधिकार नामक द्वितीय अधिकार में कुल ग्यारह गाथाएं हैं। जीव और अजीव पदार्थ का कथन प्रथम अध्याय में किया गया है। अत: उन दोनों