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'दव्खसंगठ
आहारक काययोगी, आहारक मिश्र काययोगी। उस में परम ऋद्धि के महात्म्य से षष्ठम गुणस्थानवर्ती मुनियों को आहारक काययोग होता है। जब पद या पदार्थ में सन्देह उत्पन्न होता है, तब उत्तम अंग से पुतला निकलता है। जहाँ भी तीर्थंकर देव होते हैं, उन्हें वह अन्तर्मुहुर्त में देखता है। उस कारण से यति को निश्चय उत्पन्न हो जाता है। वह पुतला पुनः शरीर में प्रवेश करता है |
[ लिपिकार के द्वारा आहारक मिश्र काययोग कार्मण काययोग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन का प्रकरण छूट गया है। लेश्या के प्रकरण में भी अपूर्णता है। हम जो कुछ समझ पाये हैं, उसे विशेष में लिख रहे हैं कृपया पाठक उसे अवश्य पढ़ें । सम्पादक ]
मिश्र पर्याप्तक को पद्मलेश्या होती है। स्व पर पक्ष से रहित, निदानशोक-भय-राग-द्वेष से रहित शुक्ललेश्या है।
भविया - सिद्ध के योग्य जीव भव्य हैं, उस से विपरीत जीव अभव्य हैं। सिद्ध जीव भव्यत्व और अभव्यत्व से रहित होते हैं।
सम्मत्त - आस के द्वारा प्रतिपादित पदार्थों में, जिनाज्ञा से शास्त्र को श्रवण कर श्रद्धा करना, सम्यक्त्व है।
उपशम सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिध्यादृष्टि |
उस में सम्यक्त्व के द्वारा क्या उपादान किया गया? उसे कहते हैं। जैसे आम्रवन में निम्ब का भी ग्रहण हो जाता है। मिध्यात्व तीन प्रकार का है - मिध्यात्व - सासादन और सम्यग्मिथ्यात्व । इस के लिए कौन सा दृष्टान्त है ?
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जैसे यन्त्र में डाले गये कोद्रव में से कुछ कोद्रव पूर्ण रूप से निकलते हैं, कुछ अर्द्ध दलित निकलते हैं, कुछ चूर्ण हो कर निकलते हैं। इसी प्रकार समझना चाहिये।
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