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दव्यसंगह। | आशीर्वाद
ग्रंथ निग्रंथों के चक्षु हैं; यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है कि "आगम चक्खू साहु"। ग्रंथ निग्रंथ संस्कृति के आभूषण हैं। श्रमण संस्कृति की सुरभि को दिग्दिगन्त में प्रसारित करने वाले अनुपम कुसुम हैं, ग्रंथ। भव्य जीवों की आत्मशक्ति को जागृत करने वाले दिथ्यमन्त्र हैं, ग्रंथ। ग्रंथों की शरण में गये विना कषायों को प्रन्थियाँ विलय को प्राप्त नहीं होती। नव देवताओं में जिनवाणी को भी एक देवता माना जाता है। देव-शास्त्र-गुरु जो कि सम्यग्दर्शन के आयतन हैं, उन में जिनवाणी को द्वितीय स्थान प्राप्त है। अत: ग्रंथों की सुरक्षा एवं प्रकाशन में प्रत्येक भव्य को रुचि लेनी चाहिये।
प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण व प्रकाशन कराने के कार्य में मेरा सहयोग करने वाली, गुरुभक्त, आर्यिका सुविधिमती माताजी ने श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचित "दव्यसंगह' ग्रंथ की आचार्य प्रभाचन्द्र विरचित टीका का अनुवाद कर के अत्यन्त प्रशस्त कार्य किया है।
माताजी श्रुतसेवा कर के अचिन्त्य श्रुतज्ञान को प्राप्त करें तथा उस श्रुत ज्ञान के माध्यम से उन्हें केवलज्ञानोत्पत्ति हो, यही मेरा आशीर्वाद है। ग्रंथ के प्रकाशक, द्रव्यदाता आदि समस्त परोक्ष एवं अपरोक्ष सहयोगियों को भी मेरा आशीर्वाद है।
यह ग्रंथ यावच्चन्द्र दिवाकर भव्य जीवों का मार्गदर्शन करता रहे, यही मेरी मंगल कामना है।
- मुनि सुविधिसागर