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1दल्लसंगह
कर्म के बन्ध के कारण।।7।। भावार्थ : जीव में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं है। अतः निश्चय नय की अपेक्षा से जीव अमूर्तिक है। जीव पुद्गल कर्मों से बन्धता है, वे कर्म मूर्तिक हैं। अत: - जय जी- 4 के मारण मूर्तिक है।। 7॥
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उत्थानिका : स: व्यवहारकर्ता परमार्थकर्ता च भक्तीत्याह - गाथा : पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दुणिच्छयदो।
चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं॥8॥ टीका : स आदा आत्मा, कत्ता कर्ता भवति। कदा? ववहारदो व्यवहारनयापेक्षया, केषां कर्ता? पुग्गलकम्मादीणं पुद्गलकर्मादीनां, पिच्छयदो निश्चयनयापेक्षया, दु पुनः, चेदणकम्माण चेतनकर्मणां क्रोधादीनां कर्ता सुद्धणया शुद्धनयापेक्षया सुद्धभावाणं शुद्धभावानाम्, अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यसुखानामुत्तरोत्तरप्रकृष्टपरिणामानां कर्ता। उत्थानिका : वह व्यवहारकर्ता और परमार्थकर्ता होता है, ऐसा कहते
हैं
गाथार्थ : [ आदा ]आत्मा [ ववहारदो ] व्यवहार से [ पुग्गलकम्मादीणं] | पुद्गल कर्मों का [ णिच्छयदो ] निश्चय से [ चेदणकम्माण ] चैतन्यकर्मों का [दु] और [ सुद्धणया ] शुद्धनय से [ सुद्धभावाणं ] शुद्ध भावों का [कत्ता] कर्त्ता है।। 8॥ टीकार्थ : वह आदा आत्मा कत्ता कर्ता होता है। कब? ववहारदो व्यवहार नय की अपेक्षा से। किन का कर्त्ता होता है? पुग्गलकम्मादीणं पुद्गल कर्मादिकों का णिच्छयदो निश्चय नय की अपेक्षा से दु पुनः
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